दुनिया मे कितना गम है। मेरा गम कितना कम है। खुद का दुःख दुसरो के दुःख से कितना कम है- इस तरह के गलत आश्वासन मानव खुद को देता रहता है। कोई को ज्यादा दुःखी देखता है तो खुद को दिलासा देता रहता है- की इससे तो हम सुखी है। और जब ज्यादा सुखी को देखते है तो हम खुद को दीन दुखी समझने लगते है। सुख हो या दुःख कभी भी दुसरो के साथ इसकी तुलना नही करनी चाहिए। क्योंकि हम जिसे दुःखी ही समझते है वह दुःखी हो ऐसा जरूरी नही है। और हम जिसे दुखी समझते है खरेखर वह कितना दुखी है इसका हम अंदाज नही लगा सकते है।
सुख दुःख कोई तराजू नही है। सुख दुःख को किसी प्रकार के वजन काटे मे तोला नही जा सखता है। सुख दुःख वास्तविकता मे तो व्यक्तिगत है।और आप आपके मन पर इसकी परिस्थिति को कितना हावी होने देते है उस पर से ही सुख दुःख की अनुभूति का आधार है।
बहुत से लोग खुद जितने दुखी है उससे कई ज्यादा खुद को दुखी समझते है। कई सारे लोग जितने सुखी है उससे कई गुना ज्यादा खुद को सुखी समझते है।
“जरूरत तो फकीरो की भी पुरी हो जाती है।
इच्छाए तो राजाओ की भी अधुरी रह जाती है।”
गरीब व्यक्ति फुटपाथ पर सो कर के भी उसे खुद की हुकुमत नजर आती है। सुख के साथ जीवन पुरा कर देता है। तो अमीर आदमी को महलो मे रहते हुए भी ऐसा लगता है- मै तो गुलामी की जंजीरो मे कैद हूँ। दोनो के मन मे सुख को मापने के नजरिये मे जमीन आसमान का अंतर है। एक फकीर भी राजा की तरह जीवन जी जाता है। तो एक राजा भी रंक की तरह जीवन जी कर चल देता है।
कोई पैर बिना के मानव को देखकर मेरे पास जुते नही पर पैर तो है- ऐसा आश्वासन देने से टालो और किसीका बंगला देखकर तुम्हारे छोटे से मकान को नीची नजरो से देखने का भी प्रयत्न मत करो। तुम्हारे भाग मे जो आया उसे मानते सिखो। तभी तुम्हारे पास जो है वह भी पुरा लगेगा। पहले जितना है उसे तो भोग लो। फिर ज्यादा लेने दौडना। नही तो जो है उसका भी आन्नद नही ले सकोगे। सुख और दुःख आपके हाथ की बात है। आपका सुख दुःख आप ही नक्की कर सकते है।
मर्जी आपकी ।
“फर्क कहा है अन्नद और वेदना मे..
दोनो ही चली जाती है उत्तेजना मे…” ।।