जब तक राग नही जायेगा वीतरागता प्रगट नही हो सकती है। इस राग के अनेक रूप है परन्तू वाचकवर्य उमास्वातिजी महाराजा ने प्रशम रति ग्रन्थ में राग के मुख्य आठ रूपों का वर्णन किया है। जब तक हम राग के इस पर्यायों को जानेगे नही तब तक इन्हे दूर करने का प्रयत्न कैसे कर सकते है। अगर हमे इन्हें दूर करना है तो इसे जानना पड़ेगा।
1 इच्छा इच्छा यानि प्रीति। जब हम सुन्दर अनुकूल पदार्थे देखते है तो खुश हो जाते है। प्रकुल्लित हो जाते है। उसमे खुश होना उसी का नाम इच्छा है।
2 मूर्छा प्रिय पदार्थो में लीन हो जाना तल्लीन हो जाना और जब आत्मा इन पदार्थो में विषयो में अभेद रूप से रमन करने लगते है।
3 कामना जो पदार्थ या विषेश हमे अच्छे लगते है परन्तु प्राप्त नही हुए है तो उन्हें प्राप्त करने की झंखना वही कामना है।
4 स्नेह जब हम किसी पर गांढ प्रेम करने लगते है चाहे फिर वह इंसान हो या पदार्थ बस प्रेम वही स्नेह है।
5 गृद्धता किसी भी पदार्थ को प्राप्त करने की अभीलाषा। जब बी हम किसी प्रकार या विशेष में आशक्त हो जाते है वही गृद्वाता है। कौआ मास को देख कर एक दम आसथ्त हो जाता है। बस ऐसी आशक्ति ही गृद्धता है।
6 ममत्व यह वस्तु मेरी है। इसका मै मालिक हूँ पर पदार्थो में अधिकार ज़माने में हम डूबते चले जाते है।
7 अभिनन्द प्रिय विषय मिल जाता है तो उसका संतोष, ख़ुशी आनंद वही है अभिनन्द।
8 अभिलाषा प्रिय इष्ट वस्तु की प्रप्ति के मनोरथ ये अभिलाषा है।
राग विषयक मन की तमाम वृत्तियो का कितना अदभुत विशलेषण किया है। हमारे मन को और मन की सारी वृतियों को बराबर समजाना अतिआवश्यक है और इसे समजे बिना इस पर संयम रखना अशक्य है।
राग की विभिन्न वृतियों में फसाए होने के बावजूद हम यह नही जानते है की मै राग में फसा हुआ हूँ।
हम आत्मा में उढती सारी राग प्रकृतियों को पहचानने की आवश्यकता है। तभी इन व्यक्तियो को रोका जा सकता है। इन भावो का निरोध करोगे तो ही वैराग्य भाव दृढ़ बनेगा।