इस संसार में अधिकांश व्यक्तियों को मिठार्इ बहुत रूचिकर और आनन्ददायक लगती है । कोर्इ भी खुशी का मौका हो, उस समय मुंह मीठा कराकर उस प्रसंग को मनाया जाता है । जब भी हम किसी को खाने पर बुलाते हैं, तो उस समय भी एक डिश मीठे की अवश्य रखते है । किसी भी पार्टी या भोज में भी मिठार्इ अवश्य परोसी जाती है और आप उस समय उसे बड़े प्रेम से खाते हो l
इस तरह अक्सर हम देखते हैं कि सामान्यत: सभी लोगों को मिठार्इ काफी पसंद आती है, किन्तु यही मिठार्इ अगर किसी डायबटीज या मधुमेह के रोगी को बहुत आग्रह पूर्वक खिलार्इ जाये, तो उसे वह नुक्सान करती है और वह परेशान हो उठता है । ये सब बहुत सामान्य बातें है और आप और हम सभी इन्हें रोजमर्या के जीवन में स्वीकार भी कर लेते है l
लेकिन क्या आप कभी भी इस बात पर भी विचार कतरे है कि जो मिठार्इ सामान्यत: सभी को आनन्ददायक प्रतीत होती है, वही कुछ को पीड़ादायक कैसे हो जाती है ?
इसका कारण स्पष्ट है :- किसी भी जड़ प्रदार्थ में ऐसी शक्ति नहीं होती है कि वह किसी चैतन्य पदार्थ को अनुभूति प्रदान कर सके । फिर यह जो मिठार्इ के खाने में आपको जो रूचिकर स्वाद आ रहा है, वह कहां से आ रहा है ?
अगर किसी मिठार्इ में ही आनन्द देने वाली कोर्इ शक्ति होती, तो वह जो भी उसे खाता, उसे ही आनन्द देती, किन्तु ऐसा देखने में नहीं आता है; क्योकि डायबटीज, बुजुर्ग और बीमारों को यह मिठाई तकलीफ भी दे सकती है l
यहां पर एक और विचारणीय प्रश्न यह भी है कि जो भी वस्तु किसी दूसरे को आनन्द दे, उसे स्वयं आनन्द न मिले, यह कैसे संभव है ?
किन्तु मिठार्इ में जड़पना होने से उसमें किसी भी तरह की अनुभूति का अभाव रहता है, इसलिये वह स्वयं आनंदित नहीं होती है और जिसको स्वयं आनन्द नहीं मिल रहा हो, वह दूसरों को आनंदित करे, यह असंभव है l
फिर यह मिठार्इ को खाने पर जो आपको आनंददायक सुख की अनुभूति हो रही है, वह कहां से हो रही है ?
हे भव्य आत्मन् , जरा ध्यान से इस बात को समझो । यह सुख की अनुभूति तो आपके निज चैतन्य आत्मा में जो सुख का महासमुद्र भरा हुआ है, उसी में से छलक रही है । फर्क इतना ही है कि आपकी द्रष्टि इस समुद्र पर नहीं है, इसलिये आप ऐसा मानते हो कि यह आनन्द मिठार्इ में से आ रहा है l
हे प्रियम् , यह बहुत विपरीतता है । आपके अन्दर अनन्त सुख का महासमुद्र हिलोरे मार रहा है और आप सुख को बाहर की वस्तु में, जड़ पदार्थ में खोज रहे हो । यह बात अगर आपने अपने अंतर्मन से स्वीकार कर ली, तो फिर आपको इस संसार से कुछ भी पाने की आकांक्षा, इच्छा शेष ही नहीं रहेगी । तब आप भी इस लोक के ऊपर अपने आपको तैरता हुआ पाकर अपने त्रिकालवर्ती परमात्म-स्वरूप को प्राप्त कर सकोगे l
_हे भव्यात्मन् , मिठार्इ का तो एक उदाहरण है । इसी तरह जिस किसी भी वस्तु को आप सुख पाने की आशा से गृहण करना चाहते हो, उस वस्तु के प्रति अब अपने मोह का त्याग कर वस्तु-स्थिति को गृहण करो l_
इस उदाहरण में यह भी सम्मिलित है कि जिस तरह कोर्इ भी जड़ प्रदार्थ सुख देने में समर्थ नहीं है, उसी तरह वह दुख देने में भी समर्थ नहीं है l
_अत: अब आपको न तो किसी पदार्थ से राग करना चाहिये और न ही किसी से द्वेष । यही सच्ची वीतरागी परिणति होती है l_