पुराणो की एक कथा सुनी थी-
विश्व के सर्जन की इच्छा ब्रह्माजी के मन मन्दिर मे उठी और ब्रह्मा जी विश्व के सर्जन के मनोरथो मे खो गये। हर कृति के प्रारम्भ करने से पहले एक अजब गजब का विचार ब्रह्मा जी को उत्पन्न हुआ।
कला और सुंदरता से पूर्ण मेरी कृतियो मे गलती होने का सम्भव है। तो मेरी भूलो को शोध कर मुझे बताये इसलिए एक टीकाकार का अस्तित्व जरूरी है।
ब्रह्माजी ने मन मे आये विचार को हकीकत मे बदलने के लिए अपने विचार को आकार दिया और सबसे पहले सर्जन टीकाकार का दिया।
अब ब्रह्माजी स्वयं के अद्भुत कला वैभव से एक के बाद एक नई नई कृतिया बनाकर टीकाकार के सामने रखी सबसे पहले ऊट बनाया तो उसने कहाँ ये तो खुब कदरूपा है।
मोर बनाया। तो उसने कहाँ यह तो पंखो को खोलता है तो खूबसूरत लगता है। पर जब इसे आगे से देखते है तो ही यह अच्छा लगता है।
गधा बनया। तो टीकाकार ने अपना मुह खोला और कहाँ यह तो एक जड है इसमे थोडी भी चंचलता नही है।
बंदर बनाया तो बोला यह तो बहुत ज्यादा चंचल है। इसमे गम्भीरता का नामोनिशान नही है।
ब्रह्माजी ने ढेर सारी कृतिया बनाकर उसके सामने प्रस्तुत करी पर टीकाकार ने उनकी हर कृति की कला मे खामी निकालकर उसे अधूरा बता दिया।
अब ब्रह्माजी ने अपनी total शक्तियो को संगठित करके मानव की रचना करी और परिक्षा मे उनकी यह कृति तो 100% गलती बिना साबित होगी। उन्होंने इसी विश्वास के साथ मानव को टीकाकार के सामने उपस्थित करा।
अभी सब कुछ अच्छा है पर इसके मन के विचारो को जान सके उसके लिए ऐसी कोई खिडकी रखने की आवश्यकता थी बस यही भूल करी है।
और तभी ब्रह्माजी को समझ मे आया की टीकाकार का सर्जन ही मेरी सबसे बडी भूल थी। और अपनी रोद्र शक्ति को उत्पन्न करके ब्रह्माजी टीकाकार का नामोनिशान मिटा दिया।
बात यही पर खत्म नही होती है पर वह जितने समय तक धरती पर रहा उसने अपने वंश को इतना बडा दिया कि ब्रह्माजी ने उसे तो खत्म कर दिया पर उसके वंश को खत्म करने मे वो भी असमर्थ नजर आये। अरे आज तो उसके वंशज सर्वत्र ही विराजमान हो गये है।
अगर हम इस जगह टीकाकार की दृष्टि को छोड़कर कृष्ण महाराजा के गुणानुराग की दृष्टि को हम जीवन मे स्वीकार करेंगे तो हमारा सम्पूर्ण नजरिया ही बदल जायेगा।
कृष्ण महाराजा को जब सडक पर एक मरी हुई कुत्ती मिली जो भयंकर सड चुकी थी। दुर्गंध मार रही थी। उसके पास से निकलना भी मुश्किल था।
पर उस समय कृष्ण महाराजा उसके एक दम सफेद दाँतो को देखकर उसकी प्रशंसा कर रहे थे कि इसके दाँत कितने खुबसूरत है। जब ऐसी गुण दृष्टि आ जाती है तो लाखो अवगुणो मे गुण दिख ही जाते है।
और इन्सान जब लाखो दोषो से भरा होता तो भी उसमे एकाद गुण तो दिख ही जाते है। जो उसके प्रति बहुमान को उत्पन्न करने मे काफी है।
” जीवन मे जब गुण दृष्टि आ जाती है तो
उखडे मे भी इन्सान को बगीचा नजर आने लगता है”