धन्यकुमार को खुद से बड़े तीन भाई थे । वे सब धन्नाजी के प्रति ईर्ष्या धारण करते थे । दुर्भागी थे । खुद धन प्राप्त नही कर सकते थे और धन्यकुमार धन प्राप्त करे वह सहन भी नही होता था , फिर भी उसके धन में हक़ भी रखना था ।
उदार धन्यकुमार ने तीन तीन बार अपनी सब संपत्ति भाइयो को अर्पण कर दी । तीनो बार उस संपत्ति को गवाकर वे बड़े भाई भिखारी बन गए ।
उनके ऐसे दुर्भाग्य का कारण उनके पिछले जन्म में समाया हुआ था ।
सुग्राम नाम कोई गांव था ।
गांव की एक गली में पास पास में तीन घर थे। तीनो घर के रहवासी परस्पर घनिष्ट मित्र बने । तीनो घर के पुरुष कोई व्यापर धंधा प्राप्त नही कर सकते थे इसलिए जंगल में जाकर लकड़िया तोड़ कर उसे बेचते थे इस तरह थोड़ा बहुत धनोपार्जन करते थे । इस काम में तीनों एक दूसरे का सहकार्य करते इससे उनकी मित्रता मजबूत बनती चली ।
एक बार सुबह भोजन करके तीनो मित्र जंगल में गये । साथ में दोपहर के खाने के डिब्बे लेते गये । काम में व्यस्त हो गए । तीसरा पहर शुरू हुआ तब मासक्षमण के तपस्वी कोई जैन साधु जंगल में से नगर की तरफ गोचरी के लिए निकले । आज उनका पारणा था । उन तीनो की नज़र साधु के ऊपर पड़ी ।
कलाकार के वैराग्य की तरह इन मित्रो में भी दान की भावना प्रकटी । वे सोचने लगे की गर्मी का समय है । उसमें भी मध्यान्ह तप रहा है । साधु तपस्वी है । एकदम जंगल में से चलकर आ रहे है । धरती तपे हुए तवे जैसी हो चुकी है । साधु पैर में कुछ पहनते नही । सिर भी खुला रखा है । उनकी क्या हालत हो रही होगी ?
साधु के कष्टमय संयम तथा गोचरी की कल्पना से तीनों के शरीर में कंपकंपी पैदा हो गयी ।
और गांव तक जायेंगे । उसके बाद कुछ मिलेगा तो पारणा करेंगे । इतनी गर्मी …… सोचते सोचते वे तीनों भावतुर बन गए । उन्हें लगा , अपने पास जो खाना है वह पूरा ही वाहोरा दे तो इनकी गोचरी पूरी हो जाये । यह लाभ हमें लेना चाहिए । एक समय नही खाएंगे तो क्या फर्क पड़ने वाला है ? हमने सुबह खाना खाया है । रात को वापिस काने वाले है ।
उन्होंने साधु को गोचरी के लिए आमंत्रण दिया । महात्मा ने स्वीकार । तीनो मित्रो ने आग्रहपूर्वक खुद खुद के डिब्बे उलटे क्र दिए । महात्मा को गोचरी पूर्ण हो गयी । धर्मलाभ कहकर वे जंगल में वापिस लौट गए ।
ये मित्र शाम होते ही भूख से व्याकुल बन गए । पर्याय नही था इसलिए बाकी रहा हुआ काम पूरा किया । उसके बाद भी लकड़ी की गठरियाँ उठानी पड़ी । उसे उठाकर गांव की तरफ श्क गये । घर वापिस लौटे । घर जाकर पहले भोजन माँगा पर आज उनकी पत्नियों ने चूला सुलगाया नही था । इससे कुछ भी नही मिला । इस समय ये तीनो मिठे भूख से छटपटाने लगे । इकट्ठा होकर साधु को किये हुए सुपत्रदान की निंदा करने लगे । परस्पर बोले : अरे हम बेवकूफ बन गये । साधु को तो तप का अभ्यास होता है । एकद उपवास ज़्यादा खींचना पडे तो इसस उनको तकलीफ नही होती । जब हम अन्न के बिना तड़प रहे है । घर जलाकर तीर्थ नही करना चाहिए ।
इस तरह किये हुए दान की बहुत ही भत्सर्ना की । इस कुकर्म दान पहले दान देकर जो पुण्यकर्म बाँधा था । वह सब निष्फल बना दिया । ऊपर से नया अशुभकर्म बांधकर सचमुच बेवकूफ बने ।
अंत में ये मित्र मर गए । धंसारसेठ के अग्रिम पुत्रो के रूप में राजगृही में उन्होंने जन्मप्राप्त किया । सुपत्रदान के प्रभाव से मनुष्यजन्म तो प्राप्त किया परन्तु दान की की हुई निंदा ने उन्हें इस जन्म में बार बार भिखारी बनाया ।
आधारग्रंथ : श्री धन्यचरित्रम – 8 वाँ प्रस्ताव ।