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आर्द्रकुमार का पूर्वजन्म

अनार्यदेश में जन्मे आर्द्रकुमार आर्यदेश तथा भागवती प्रव्रज्या तक तो पहुँचे थे फिर भी विषयसुख की आसक्ति ने उनके जीवन को कलुषित कर दिया। इसका कारण उनके पिछले जन्म में समाया हुआ है।

मगधदेश के वसन्तपुरनगर में सामायिक नामक एक सेठ रहता था। उनकी पत्नी का नाम बंधुमति। एक बार आचार्य सुस्थित सूरीश्वरजी वसंतपुरनगर में पधारे । श्रावको तथा जिनभक्तो के साथ में सामायिक सेठ धर्मदेशना सुनने पहुँचे।

बंधुमति उनके साथ शामिल हुई।

एक ही देशना सुनकर वहाँ सेठ की आत्मा तिलमिला उठी । विषयसुख के प्रति वैराग्य प्रकटा । संसारवास धुंए से भी ज्यादा तुच्छ है इतना समझ में आ गया।

सेठ ने सुरिभगवंत के समक्ष दीक्षा की प्रार्थना की । पत्नी बंधुमति भी सेठ के साथ महाभिनिष्क्रमण के लिए तैयार हो गई। सूरीभगवंत ने दोनों को दीक्षा दी।

सामायिक सेठ की आत्मा महाव्रतों का दृढ पालन करने लगी । ज्ञान की प्राप्ति में लयलीन बनकर क्रमशः गितार्थ बनी।

एक बार सामायिक मुनि खुद के मुनि परिवार के साथ एक शहर में आये।

साध्वीजी का समुदाय भी विचरता-विचरता इसी शहर में पहुँचा। साध्वीओ के इस समुदाय में बंधुमति साध्वीजी भी विद्यमान थे।

किसी अवसर पर बंधुमति साध्वीजी का अवलोकन सामायिक मुनि ने किया। तीव्ररागमोहनिय कर्म के आक्रमण से वे घायल हो गये । पहले की हुई विषय क्रीड़ाओं का स्मरण हो गया। बंधुमति को लेकर वापिस संसारवास स्वीकारने के लिये वे तैयार हुये।

एक सहवर्ती मुनि के द्वारा यह बात साध्वी बंधुमति तथा उनकी गुरुणी तक पहुँची। गुरुणी प्रवर्तिनी थी। उन्हें बहुत आघात लगा। सामायिक मुनि को इन प्रवर्तिनी ने समझाया कि, गितार्थोप्येष मर्यादां लडघेत यदि का गति:?

गितार्थ होकर भी तुम व्रतभंग करोगे तो कितनी भयानक दुर्गति होगी।

सोचो!
सामायिक मुनि उस समय तो मोन रहे परंतु उनके हावभाव ऐसा कहते थे की राग का तूफान अब नियंत्रण के बाहर जा रहा है।

प्रवर्तिनी ने उस जगह से सपरिवार विहार किया। अन्यत्र पहुँचे । साध्वी बन्धुमती को पति मुनि का ऐसा पतन लेशमात्र पसंद नही था। वे उत्कट वैराग्य से वासित थे । उन्होंने प्रवर्तिनी को विनती की, भगवंत! मुझे अनशन करने की आज्ञा दो। म्रत्यु का मुझे डर नही है।डर है, व्रतभंग हो जाने का! वृतपालन के लिए मेरी आत्मा तो अडिग हे परन्तु मेरे निमित्त से गितार्थमुनि सामायिक , व्रतों के वहन (पालन)में शिथिल हो रहे हैं।यह बात मुझे बहुत खल रही है।
आज यघपि उनके संयम के ऊपर से आफत टल गई फिर भी जहाँ-जहाँ वे जायेंगे तथा मेरा नाम सुनेंगे वहाँ रागबुध्दि के वश हुये बिना नही रहेंगे । वापिस संसार सेवन की इच्छा करेंगे।
अगर मैं ही अनशन कर लूँ तो मेरा संयम भी सुरक्षित रहेगा। उनका संयम भी निर्विघ्न बन जायेगा।

पीवर्तिनी ने अनुमति दी। गच्छाधिपति ने भी आज्ञा दी। अनशन के लिए गच्छनायक की आज्ञा आवश्यक होती है ना ? बन्धुमती साध्वीजी ने अनशन किया। समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए। वैमानिक देवलोक में उत्पन्न हुये ।

पति मुनि को महाव्रतों के पालन में स्थिर करने के लिए पत्नी साध्वीने दिया हुआ यह कितना भव्य बलिदान है!धन्य है इन साध्वीजी को!उनके वैराग्य की परिणति को।

बन्धुमती के कालधर्म का समाचार समयिकमुनी को मिला । अब,उनका राग मोहनीय का उदय शांत हो गया । खुद के मानसिक पतन के पति उन्हें बहुत पश्चात्ताप हुआ। उनकी गितार्थबुध्दि ने उन्हें पापशुध्दि के लिए बहुत प्रेरित किया।

सामायिक मुनि ने भी खुद के इस अतिचार की शुध्दि के लिये गुरु आज्ञा प्राप्तकर अनशन किया। कालधर्म प्राप्तकर वे पहले देवलोक में उत्पन्न हुए।

पहले देवलोक मे से च्यवन पाकर अनार्यदेश में आर्द्रकुमार के रूप में उत्पन्न हुए।

संयम की की हुई विराधना ने गितार्थमुनि को अनार्यदेश में फेंक दिया। विराधना के किये पश्चात्ताप ने उन्हें वापिस आर्यदेश तथा संयम प्राप्ति तक पहुँचाया।

आर्द्रकुमार से आर्द्रमुनि बने। विषयारस के तीव्र संस्कारो वापिस जाग्रत हुए। संयम से इस आर्द्र मुनि का पतन हुआ। वे संयम छोड़कर संसार में पड़े और श्रीमती नाम श्रेष्ठि कन्या के साथ शादी की। इन दंपती के दांपत्य की वेळ पर पुत्रोत्पति की लता भी प्रस्फुटित हुई। जिस ‘श्रीमती’ नामकी कन्या के साथ उनकी शादी हुई वही श्रीमती यानि बन्धुमती की आत्मा। वर्षो के बाद इस आर्द्रकुमार ने दुबारा पुनः संयम ग्रहण किया। परमात्मा महावीर देव के प्रत्यक्ष दर्शन करके आत्मा को धन्य किया । अंत में सब कर्मो का अंत करके शाश्वत सुखों के स्वामी बने।

क्लिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्रसूरीश्वरजी महाराजने इस आर्द्रमुनि को प्रत्येकबुध्द कहा है। सामान्यतया प्रत्येकबुध्द मुनिवर किसी के शिष्य नही बनते तथा किसी को शिष्य नही बनाते। यह परिपाटी हमे करँकडूमुनि, द्विमुखमुनि , नमी राजर्षि वैसे ही नगगति राजर्षि जैसे प्रत्येक बुद्ध में देखने को मिलती है।

आर्द्रमुनि के प्रसंग में फर्क इतना हे कि उन्होंने अपने संसारी अवस्था के ५०० संमतो को स्वयं दीक्षा प्रदान की है तथा शिष्य बनाये है।

-संदर्भ ग्रंथ: त्रिषष्टि० चरित्र – १०पर्व

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