विनयपूर्ण व्यवहार होना चाहिए:
हमें तथा आपको मोक्ष की साधना के लिए विनय की साधना करना अत्यावश्यक है। उचित आचरण विनय में ही आता है। आपकी संतानों को सुयोग्य मार्ग में लाना हो, उचित आचरण में जोड़ना हो, प्रभु शासक का आराधक बनाना हो, सम्यग्दर्शन की विरासत से समृद्ध बनाना हो, दुर्गति में जाने से बचना हो तो यह विनय करना आवश्यक है। आपने अपने माता-पिता का विनय किया होगा। यह आपकी संतान ने देखा होगा तो ही यह विनय वे भी सीख सकेंगे।
घर से बाहर जाते समय माता-पिता से पूछना ही पड़ेगा, ‘मैं जाऊं?’
सभा: फोन से कह देते हैं कि बाहर हैं!
हद कर दी! नहीं चल सकता! उनका जो विनय व्यवहार करने को कहा गया है वह करना ही पड़ेगा। इसकी अवहेलना करने में आपका हित नहीं है। फिर भी फोन से कहा और अगर वह आपसे पूछे कि ‘कहां हो’? तो क्या जवाब देते हो?
सभा: फोन कट कर देते हैं?
आप लोग कितने नीचे गिर गए हैं- यह आपके प्रत्युत्तर से पता चलता है। परिस्थिति बहुत गंभीर है। सचेत हो जाओ! इसमें आपका हीत नहीं है।
परमतारक परम श्रद्धेय परमगुरुदेव कहते थे कि ‘हमारी छोटी उम्र में भूल-चूक से भी घर के बड़ों से कहा हो कि ‘बाहर जाता हूं’ तो 4 थप्पड़ पड़ते थे। पूछते थे कि ‘जाता हूं’ का अर्थ है? तुझे स्वतंत्रता से फैसले करने का अधिकार किसने दिया? पहले पूछ कि ‘मैं जाऊं या नहीं?’ ‘हां’ कही जाए तो ही जाना है’ ‘ना’ कहीं जाए तो नहीं जाना है। यह संस्कार खानदानी परिवार में होते थे। ऐसा व्यक्तित्व का निर्माण होता था।
उस जमाने में एक रुपए में १९२ पाई आती थी। एक पाई में इतना सब आता था कि भरपेट खाया जा सकता था। मूंगफली, चने-मुरमुरे खाने के लिए घर के बड़े प्रतिदिन एक पाई देते थे। शाम को घर आए तब पूछते ‘क्या कर आए?’ उसमें पता चलता कि ‘नहीं खाने की वस्तु खाकर आए हैं अथवा नाटक या सिनेमा देखकर आए हैं’ तो मार पड़ती थी और कहा जाता था कि ‘आज के बाद पाई नहीं मिलेगी, बल्कि घर से बाहर जाना भी बंद।’ श्रावक के रूप में आपको जो नहीं करना चाहिए वह नहीं ही करना चाहिए। ऐसा आप कुछ कर बैठे तो आपके माता-पिता आपको कब बचा सकते हैं? आप उन्हें सब कहते रहो तो! आप कुछ कहे ही नहीं, जाने से पहले उनसे पूछा ही नहीं, तो तुमको खड्डे में गिरने से कैसे बचा सकेंगे?