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“हमारी दोहरी विचारधारा का मापदंड”

हम कितने ज़्यादा चालक है? प्रभु को, गुरु को, धर्म को, सब को ठग लेते है।
पाप कार्यों में कभी संतोष मानते नही है। पुष्प की प्रकृति में हमेशा संतोष को मानते है। अधर्म के कार्यों में जितना मिला उसको भोग लो यह वृत्ति होती है। धर्म के कार्यों में इतना ही मिला कैसे जैन धर्म पालेंगे यह फ़ीलिंग होती है।
कुकर्मों के कामों में जैसा मिला वैसे मोज मज़ा कर लो एसी मानसिकता होती है।
सुकर्म के कामों में ऐसा ही मिला ऐसा ही मिला इस तरह की ग़लत विचार धारा होती है।
दुश्कृत्यो में चलो इतना तो मिला ऐसा पोजेटिव परिशिलन होता है। सतकार्यो में इतने से क्या होगा? ऐसे नेगेटिव चिंतन होता है।
सुख़्शीलता में जितनी भी सुविधा मिले वह अच्छी लगती है ऐसा हमारा गणित होता है। और कष्टों में इतना कष्ट बाप रे बाप उससे दूर भागने का बेस्ट बहाना हमारे पास होता है।
विराधना मे इतनी हिंसा मै नही करता है! इस तरह की टाॅप बचने की आयडीआ हमारे पास होती है। और आराधना मै ये इतना तो करता हु! इस तरह से यथाशक्ति की मस्त लक्ष्मण -रेखा हम लोग डोर देते है।
अपवाद के सेवन में ये तो करना पड़ता है, नही तो चलेगा कैसे इस तरह का अभिप्राय होता है। और हम हमारे मन को ख़ुश कर लेते है। और उत्सर्ग के आचरण इस तरह से जड़ता रखती है नया अब तो मॉर्डन ज़माना है थोड़ा समय के साथ बदलना चाहिए। इस तरह से हमने शस्त्र विरुध कदाग्रह को पकड़ रखा है।
शरीर को शम्भालने के लिए इतनी छूट तो रखनी ही पड़ेगी नही तो शरीर टिकेगा ही नही। मनघड़त साइकल को हमने दौड़ा रखा है।
अगर हम इस दोहरे मापदंड में जीवन यापन करेंगे तो क्या आत्मा का कल्याण होगा? इन सबके ऊपर हमें सोचना होगा और दोहरे मापदंड को छोड़कर आत्मकल्याण करना होगा।।

“ध्यान”
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एक दिन एक शिष्य ने गुरु से पूछा, ‘गुरुदेव,आपकी दृष्टि में यह संसार क्या है?
March 9, 2017

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