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जब तक इन्सान संस्करो भट्टी में तपता नहि है तब तक वह किसी का भी प्रिय बन नहि सकता है।

मानव को संस्कार प्राप्त बहुत ज़रूरी है संस्कार बिना का मानव पत्थर समान है संस्करो के बिना इन्सान कोयले के समान है जिस तरह से सोना खान में से निकलता है तब वह किसिको भी अच्छा नहि लगता है परंतु जैसे ही उसे भट्टी में तपाकर टिपा जाता है ओर संस्कार कर्म होने के बाद वह सबका प्रिय बन जाता है इसी तरह मानव पर संस्कार कर्म करना अति आवश्यक है सोने की तरह अगर मानव संस्करो की भट्टी में नहि तपेगा संस्कार की एरन से नहि टिपाएगा तब तक किसी को भी आकर्षित नहि कर सकता है। कोई का प्रिय भी नहि बन सकता है।
सुवर्ण सुवर्ण होने के बाद भी जब तक उसका संस्कार कर्म नहि होता है तब तक वह सुवर्ण लगता ही नहि है। ओर उसे कोई सुवर्ण मानता भी नहि है। इसी तरह मानव भी मानव तरह जन्म लेने के बाद संस्कारित नहि होता है। तब तक मान सन्मान प्राप्त नहि कर पाता है।
संस्कार वह सुवर्ण के लिए ही नहि होता है दुनिया के हर एक पदार्थ के लिए संस्कार ज़रूरी है। हर एक जीव के लिए संस्कार ज़रूरी है संस्कार अगर नहि है तो पदार्थ का कोई मूल्य नहि होता है। संस्कार नहि तो अमूल्य मानव भी मिट्टी हो जाता है। संस्कार से मिट्टी मूर्ति बन जाती है। तो मानव ईश्वर के समकक्ष बन जाता है।
मानव जब सोलह संस्करो को स्वीकार करता है। तब उसके शरीर में एक ओरा खड़ी हो जाती है संस्करो का मानव के चहरे पर एक तेज़ होता है। जब मानव संस्कार के साथ जुड़ता है तब मानव उसके मूल के साथ जुड़ता है। मानव के मूल ही उसके आनेवाले कुल की सुख ओर दुःख के कारण होते है। संस्करो में एक विशेषता है एक मानव से लेकर एक पेढ़ी में एक पेढ़ी से आनेवाली हर एक पेढ़ी में स्थांतरित हो सकता है।
” संस्करो कोई भी वस्तु की तरह देखा नहि जा सकता है पर उसका अनुभव रोज़ किया जा सकता है।”

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