किसी भी पत्र का तुरंत उत्तर देने की आदतवाले विनोबा ने एक दिन पत्र
पढ़ते ही नाराज़ होकर उस पत्र को फाड़ दिया।
पास बैठे हुए कमलनयन बजाज ने उ पत्र के टुकड़ों को जोड़कर पढ़ा। उन्हें
पता चला की वह पत्र तो गांधीजी का लिखा हुआ था ।
बजाज ने विनोबा से पूछा: *बापू का पत्र! दुनिया के किसी भी व्यक्ति को
प्राप्त हो तो वह पागल हो जाये। जान से भी ज्यादा सम्हाल कर रखे। आपने यह क्या
कर दिया? क्यों किया?*
जवाब मिला की जिस पत्र में गलत बात की गई हो, ऐसे पत्र को रखे
रहने से क्या लाभ? चाहे फिर पत्रलेखक कोई भी हो। उसका महत्त्व क्या?
बजाज! आपको तो मालूम है ना कि बापू ने उस पत्र में मेरी बाह्य बढ़ा चढ़ाकर
प्रशंसा की है। उन्होंने मुझे लिखा है कि *आपके जैसा सत्पुरुष मैंने इस संसार
में देखा नही है।*
क्या यह अतिरेकी झूठ नही है?? मुझे तो लगता है कि पत्र लिखनेवाले का
दीमाग ठिकाने पर नही होगा, अन्यथा वह ऐसा लिखने की भूल कर ही नही सकता।
असत्य बातो को प्रमाण रखा नही जा सकता। मेरी ऐसी समझ के कारण मैंने
उस पत्र को तुरंत फाड़ दिया है।
और एक बात यह भी स्पष्ट कर दूँ की कदाचित मान भी ले की बापू का विधान
सच है तब भी ऐसे विधानवाला पत्र सम्हाले रखने से मुझ में कभी दर्प जगने से बड़ा
नुकसान होने वाला है।
विनोबा की इस लघुता को प्रत्यक्ष अनुभव करते ही बजाज
आश्चर्यमग्ध हो गए।
Moral: हमे भी ऐसे गुण होने चाहिए। *ना ही किसी का लोभ ना कोई मान।*