मानव के अन्दर रहा हुआ “मै” का भाव यानि “अभिमान”।
जो मानव अहं को त्याग करे तो ही अभिमान छूट सकता है। बाकि तो यह मै- मै करके इसका काम तो करता ही रहेगा। जब मानव अहं को छोड देगा उसी दिन से वह निर्विकारी बन जाता है। अहं को छोड़ने पर इश्वर की प्रप्ति होती है या फिर जीवन की ख्याती होती है।
उसे सुख चाहिए या सुख देने वाला, उसे शान्ति चाहिए या शान्ति को स्थापित करने वाले- मानव को उसका अहं त्यागने पर ही यह मिल सकता है।
याद रखना साथियो जो लोग जीवन मे अहं को नही छोड़ते है वह सिर्फ हारते ही नही है ऊंधे माथे गिरते भी है।
इस अहं के आवाश मे निकल पड़े थे सुभम चक्रवर्ती। परिणाम क्या आया आप सबको पता होगा। अपनी भुजा के अभिमान ने उन्हे पूर्ण रूप से गिरा कर रख दिया। जब छः खण्ड़ जीत गए उसके बाद घाती खण्ड़ के भरत क्षेत्र को जीतने निकले उन्हे अपनी ताकत पर अभिमान हो गया था और उसी अभिमान ने उनके नामो निशान को मिटा दिया।
मानव मे अभिमान नही स्वाभिमान होना चाहिए ।अभिमान ने रावण को हरा दिया। तो स्वाभिमान ने रावण को विजय की वर माला पहना दी थी।
जब आपका अभिमान लाखो प्रयत्न के बाद भी नही छुटे तो उसे इश्वर का दास बना दो। वहाँ मै है परन्तु दासत्व स्वीकारा है। अहं भले ना छुटा है परन्तु दासत्व इस अहं को जरूर तोड़ेगा।
ऐसा निर्मल अहंकार ज्यादा देर टीकता नही है।
दास का अहंकार, बालक का अहंकार, भक्त का अहंकार यह पानी पर लकड़ी से दौरी लकीर की तरह है जो लम्बा नही टीकता है। धुमिल तो करता है।क्षणिक धुमिलता ज्यादा गड़बड़ नही करे यह हमे देखना है ।
“समय बहाकर ले जाता है नाम और निशान
कोई हम मे रह जाता है तो कोई अहम मे”