अगर किसी को बोला जाए कि तू पापी हैं, तो वो गुस्से मैं आकर या तो झापड़ मार देगा या गाली बक देगा । लेकिन ये यथार्थ और कटु सत्य है कि इस धरा पर जन्म लेने वाला हर मनुष्य किसी न किसी रूप मैं पापी जरूर होता हैं ।
पहले हम समझे कि हम पाप
की परिभाषा क्या है?
मनोविज्ञान की परिभाषा में पाप वह कृत्य है जिससे मनुष्य का मानसिक साम्य अथवा एकत्व नष्ट हो। पाप से मनुष्य के मन में दो भाग हो जाते हैं और एक भाग दूसरे भाग से लड़ने लगता है। पाप मनुष्य न केवल दूसरों से छिपाता है वरन् अपने आपसे भी छिपाता है। समाज से विरुद्ध किया कार्य अपराध कहलाता है और अपने आपके विरुद्ध किया गया कार्य पाप। धर्म की भाषा में पाप ईश्वर के विरुद्ध होता है और अपराध राज द्वारा दण्डनीय होते हैं और कुछ समाज निन्दा के द्वारा अथवा अपराधी को बहिष्कार के द्वारा दण्डित करता है। मनुष्य के प्रायः सभी अपराध पाप होते हैं पर सभी पाप अपराध नहीं होते हैं।
चलिये सरल शब्दों मैं बताता हूं पाप भ्रूण हैं, और अपराध सन्तान हैं । जैसे एक कल्पना कीजिये कि आप किसी दोस्त के घर गए, वँहा आपका दोस्त रुपये गिन रहा था, आपको आता देख वो प्रसन्न हो गया, अचानक उसे कोई फोन आया और वो आपके भरोसे सभी रुपये छोड़कर चला गया । अब आपके मन मैं इतने रुपये देखकर विचार आया कि दोस्त ने रुपये तो गिने नही कुछ रुपये चुरा भी लूँ तो उसे क्या पता चलेगा, बस यंही से पाप की उतपत्ति या सृजन या भ्रूण पैदा हो गया । अब आपने उसमे से कुछ रुपए चुरा लिए ये अपराध हो गया ।
अब दोस्त आता हैं, रुपये रख देता है, लेकिन जब घर का CCTV जब देखता है तो आप रुपये चुराते दिख जाते हो और फिर आपको पुलिस पकड़कर ले जाती हैं, तो ये हुई अपराध की सजा । पर एक पल को यदि आप रुपये नही भी चुराते पर मन मैं सिर्फ रुपये देखकर चुराने का विचार भी लाते तो ये हैं पाप । इसकी सजा ईश्वर निर्धारित करता है।
हर धर्म मैं पाप के बारे मैं अलग अलग व्याख्या दी गयी हैं ।
बाइबल के अनुसार पाप के
प्रकार
अहंकारी आंखे
मिथ्या बोलने वाली जीभ
जिन हाथों ने निर्दोष का रक्त पात किया
ऐसा दिल जो शातिर षड्यंत्रों की संरचना करता है
जो कदम कुमार्ग की दिशा में तेजी से दौड़ जाते हैं
एक कपटपूर्ण साक्ष्य जो मिथ्या का उच्चारण करता है
उसे जो बंधुओं के बीच वैमनस्य बोते हैं।
अब हम इसको आगे और समझेंगे । पहले हम पाप और जीव हिंसा को समझते हैं, ये तो हम सब जानते हैं कि एक चींटी को जानबूझकर मारना या मारने मैं सहयोग देना या किसी इंसान को मारना पाप तो लगता हैं।
अब इसको और अलग से समझाता हूं जैसे कि आपके बॉस आपसे प्रसन्न होकर आपका प्रमोशन करते आप उनको पार्टी देते, बॉस मांसाहारी भोजन बनाने का कहते आप शुद्ध शाकाहारी हैं, लेकिन आप बॉस को कुछ बोल नही पाते, आप अपने बेटे को रुपये देकर मांसाहारी भोजन की व्यवस्था का बोलते वो होटल से लेकर आता,आपकी पत्नी उनको भोजन परोसती । अब इस मे पापी कौन हुआ ?
सबसे पहले आप जिसने किसी जीव की हत्या हेतु रुपये दिए, दूसरा बेटा जो लेने गया, तीसरा जिसने जीव हत्या की,चौथा जिसने बनाया, पांचवा वो जिसने परोसा, छठवां वो जिसने खाया । दरअसल एक जीव की हत्या के पूर्व निकली पीड़ा, टीस या दर्द का अहसास आज भले ही न हो पर कल ये पाप का बोझ जब बढ़ जाता तब जो समस्या आती उसका इलाज इस संसार मैं नही मिलता, वो सिर्फ ईश्वर ही सुधार सकता है, और ईश्वर की नजर मैं तो आप दंड के भागीदार हो ।
इस संसार में कोई किसी को सुख अथवा दु:ख देने वाला नहीं है। प्रत्येक मनुष्य अपने-अपने शुभ और अशुभ कर्मों का फल स्वयं ही भोगता है। जिसने पुण्य कर्म किए उन्हें उसका अच्छा फल मिलेगा, जिसने पाप किए उसे उनका फल मिलने से कोई ताकत रोक नहीं सकती। इसलिए सच ही कहा गया है कि मनुष्य जन्म से नही कर्म से ही महान बनता है।