आत्मा की विकासयात्रा का प्रारंभ और पूर्णाहुति भी पुण्य से होती है। पुण्य के शिखर पर पहुंचने के लिए भी दो प्रकार के पुण्य का आधार और उनका पालन करना जरूरी है। पाप की अशुद्धि को दूर करने के लिए और भाव की शुद्धि प्राप्त करने हेतु पुण्य जरूरी है।
नौ पुण्य अत्यंत व्यापक है। उनमें सभी प्रकार के लौकिक और लोकोत्तर पुण्य का अंतर भाव हो जाता है। नम्रता अर्थात विनय ही धर्म का मूल है। वह आत्म-विकास की आधारशिला है। नमस्कार पूर्ण स्वरूप है। इसीलिए नमस्कार पूण्य यह सभी लोकोत्तर पुण्य का संग्रह है अर्थात ये नौ प्रकार के पुण्य ही लौकिक और लोकोत्तर है यह पुण्यपात्र के अनुसार लौकिक और लोकोत्तर रूप को धारण करते हैं। यदि पात्र लौकिक है तो पुण्य भी लौकिक बनता है और यदि पात्र लोकोत्तर है तो पुण्य भी लोकोत्तर बनता है।
नौ पुण्य और 18 पाप
जीनागमों में पुण्यबंध के नौ और पापबंध के 18 प्रकार बताए हैं। वे इस प्रकार है-
(1) अन्न पुण्य
(2) जल पूण्य
(3) वस्त्र पुण्य
(4) आसन पुण्य
(5) शयन पुण्य
(6) मन पुण्य
(7) वचन पुण्य
(8) नमस्कार पुण्य ।
18 पाप:-
(1) हिंसा पाप
(2) असत्य पाप
(3) अदत्तादान पाप
(4) मैथुन पाप
(5) परिग्रह पाप
(6) क्रोध पाप
(7) मान पाप
(8) माया पाप
(9) लोभ पाप
(10) राग पाप
(11) द्वेष पाप
(12) कलह पाप
(13) अभ्याख्यान पाप
(14) पैशुन्य पाप
(15) रति-अरति पाप
(16) पर-परिवाद पाप
(17) मायामृषावाद पाप
(18) मिथ्यात्व शल्य पाप.
उपर्युक्त 9 प्रकार के पुण्य में सभी प्रकार के पुण्य और 18 प्रकार के पाप में सभी प्रकार के पापों का समावेश हो जाता है। संख्या में पुण्य की संख्या से पाप की संख्या दुगुनी है, फिर भी शक्ति में पाप से भी पुण्य अधिक प्रबल है।
सामान्य रूप से तो प्रत्येक पुण्य सभी पापों का नाशक है, फिर भी अपेक्षा से कौनसा पुण्य, कौनसा पाप की शुद्धि और नाश करने में समर्थ है, उसका संक्षिप्त में वर्णन करने हेतु यहां 9 पुण्य और 18 पाप की बात कही है।
उपर्युक्त सभी पुण्यो में जिस प्रकार पाप की शुद्धि और पाप का नाश करने की ताकत रही है उसी प्रकार नवपद के साथ गाढ़ संबंध करवाने की शक्ति भी रही हुई है। पुण्य की अचिन्त्य शक्ति के स्वामी अरिहंत परमात्मा है और वे नवपद में प्रथम पद पर है। 9 पुण्य के उपदेशक भी वही है। अतः उनके द्वारा 18 पाप की शुद्धि और नवपदों की आंशिक आराधना होती है।