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आत्ममय चित्तवृत्ति

चित्र को अलग-अलग वृत्तियों को धारण करते हुए रोकना उसका नाम योग है । चित्र की विभिन्न वृत्तियों को रोकना यानी वृत्तियों का विलीनीकरण उसे योग कहते हैं । चित्तवृत्ति सच्चिदानंद का एक विशेष स्फुरण है।

वृत्तियां निर्मल और स्थिर बन जाए तब आत्मा स्वयं को पहचान सकती है । वैराग्य से वृत्तियां निर्मल बनती है और अभ्यास से स्थिर बनती है।

सरोवर चित्त है ,तरंगे वृत्तियां है और सरोवर का तल भाग आत्मा है । आत्मा और चित्त के बीच रहे भेद को अभ्यास बीना समझा नहीं जा सकता ।

अभ्यास यानी योग के अंगो का पुनः पुनः सत्कार, आदर और प्रेमपूर्ण आवृत्ति! दीर्घ काल के अभ्यास हेतु अपार श्रद्धा, अविचल दृढ़ता , अखंड धैर्य एवं प्रबल प्रयत्न की जरूरत पड़ती है। स्वभाव पर विजय प्राप्त करने हेतु चार वस्तुओं की जरूरत है। श्रद्धा ,बोध, संयम और तप!सिद्धि मात्र अभ्यास अधीन है। अनुराग बिना की उपेक्षा वृत्ति का नाम वैराग्य है।

तृष्णा कभी तृप्त नहीं होती, उसे जितनी तृप्त करेंगे उतनी ज्यादा वह प्रदीप्त बनेगी।

विषयों के जो अधीन है वे साधक नहीं परंतु विषयो पर जिसका वर्चस्व है ,वह साधक है। इंद्रियां विषयों की तरफ नहीं दौड़े उसके लिए मैत्री, प्रमोद,करुणा, सद्भावना आदि का अभ्यास करना चाहिए।

साधक जब अपने आत्मस्वरूप में विराम पाता है तब परम प्रसन्न स्थिति की प्राप्ति होती है जिसे कृतकृत्यता कहते हैं, अभ्यास और वैराग्य द्वारा चित्त की सात्विक एकाग्र ध्येयाकार वृत्ति को योगाभ्यास कहते हैं। उसका प्रधान विषय आत्म साक्षात्कार है। आत्मा सूक्ष्मतम है । इस कारण स्थूल में से सूक्ष्म में और उसमें से सूक्ष्मतर होकर सूक्ष्मतम में गति होती है। उसी को आनंद कहते हैं। यह आनंद आने पर मोक्षसुख दूर नहीं है ।

इस सृष्टि में दो वस्तुएं नजर आती है ।एक आत्मा और दूसरी देह! एक भीतर की वस्तु और दूसरी बाहर की।

बाह्रा वस्तु हमेशा दिखती रहती है, इसी कारण इस पर आसक्ति- मोह, सहज में , बिना प्रयत्न के पैदा होते हैं। जबकि आत्मा यानी चैतन्य भीतर है, हमें दिखता नहीं क्योंकि अरुपी है। इसका कोई स्थूल रूप नहीं है ,चेतन्य ही उसका रूप है।

यह अद्भुत रुप एकदम निकट होने पर भी और अपना स्वयं का स्वरूप होने पर भी हमें दिखता नहीं, उसका अनुभव हमें होता नहीं और इसलिए अपना सुख, शांति और आनंद अपने पास होने पर भी उसकी प्राप्ति के लिए हम बाहर की दुनिया में दौड़-धूप करते हैं और फलस्वरुप अनंत दुःख,अशांति और शोक के समुद्र में हमेशा डुबे रहते हैं। प्रश्न यह होगा कि चैतन्य का अनुभव लेना किस तरह?

चैतन्य का अनुभव करने का एक सरल उपाय है चेतन की भक्ति! चैतन्य की भक्ति किस तरह करनी चाहिए ?चैतन्य के प्रति प्रेम या अनुराग किसी तरह उत्पन्न होता है? यह भी एक प्रश्न है? चैतन्य की भक्ति करने के लिए, उसे पहचानने के लिए ,अपने पास जितने साधन है उनमें मुख्य बुद्धि और मन है। इन दो साधनों के द्वारा हम चेतन्य की भक्ति कर सकते हैं।

बुध्दि द्वारा हम चैतन्य को किस प्रकार ग्रहण करते हैं ,उस पर चेतन्य की भक्ति निर्भर है।

चैतन्य का स्वरूप सर्वप्रथम बुद्धि के तर्कों से अच्छी तरह ग्रहण करना चाहिए ।तर्क भी ज्यादा तपते और उलझने खड़ी करें ,वैसे नहीं होने चाहिए। तर्क भी बुद्धि में अच्छी तरह ग्राह्रा बने ,ऐसे होने चाहिए।

1) हम खाते हैं, जलपान करते हैं, बातें करते हैं ,हंसते हैं, मन में विचार करते हैं यह सब किसके आधार पर होता है ?

अगर देह में से चैतन्य निकल जाए तो उसी क्षण शरीर निष्चेष्ट बन जाएगा। चैतन्य के अभाव में अपना अस्तित्व ही मिट जाता है, खाना पीना या उठने – बैठने की कोई भी क्रिया नहीं कर सकते। जितब ही नहीं बिन आत्मा के शरीर को शमशान में अग्नि संस्कार करने के लिए लेकर जाते हैं ।यानी देह की कीमत केवल चैतन्य आत्मा के आधार पर ही है, ऐसा सुनिश्चित होता है।

2) इस दुनिया में अनंत प्राणियों को हम अपनी नजर से देखते हैं। कोई कोई जंतु इतने शुक्ष्म होते हैं कि वे हमें आंखों से नहीं दिख सकते। विज्ञान कहता है कि खून की एक बूंद में पचास लाख जंतु है । इन सभी का अस्तित्व चैतन्य बिना नहीं हो सकता। इससे यह बोध होता है कि चैतन्य कितनी अद्भुत वस्तु है। जो अपना ही स्वरूप है और निरंतर अपने ही शरीर में वास करता है। इस तरफ हमें हमारा ध्यान खींचना चाहिए।

3) शुद्धता की दृष्टि से विचार करें तो चैतन्य – आत्मा जैसा शुद्ध द्रव्य दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलता।कोई भी वस्तु यदि हम उसे ऐसे ही पड़ी रहने दे तो उसमें परिवर्तन होने लगेगा । पानी जैसा निर्मल द्रव्य भी एक-दो दिन ऐसा ही पडा रहे तो बिगड़ने लगता है। शरीर एक दिन भी स्नान बिना रह जाए तो मलिन हो जाएगा ।

सिर्फ चैतन्य ही ऐसी वस्तु है जीवन भर (जितना भी आयुष्य हो ) अपने शरीर में रहते हुए भी उसमें परिवर्तन और मलिनता नहीं आती यानी वह जन्म से मरण तक चैतन्य स्वरूप में ही रहता है उसके कारण ही शरीर बिगड़ता नहीं । तात्पर्य यही है कि ऐसा स्वच्छ और शुद्ध पदार्थ जगत में कोई नहीं मिल सकता।

4) स्थूल यंत्र चाहे कितना भी अच्छा हो फिर भी उसे चलाने के लिए आदमी की जरूरत पड़ती है। यानी चेतन की जरूरत पड़ती है ।चैतन्य स्वयंभू है। उसे चलाने के लिए दूसरे किसी की जरूरत नहीं पड़ती। वह ज्ञान स्वरूप है यानी उसे जानने के लिए दूसरे किसी की अपेक्षा नहीं रहती।

ऐसी अद्भुत वस्तु अपने शरीर में निरंतर रहती है और अपना ही स्वरूप है फिर भी हमें उसका निरंतर स्मरण न रहता हो तो वह अपना कितना बड़ा अपराध कहलाएगा?

हम सभी आज तक ऐसा ही अपराध करते आए हैं। यह अपराध तब दूर होगा जब हम उपयुक्त चैतन्य का स्मरण करते करने हेतु सतत प्रयत्न करेंगे।

उसके स्मरण का निरंतर अभ्यास करेंगे। इस प्रयत्न और अभ्यास में हमेशा सलंग्न रहने से धीरे-धीरे उसमें सफलता मिलेगी। उसके पश्चात जब भी देह को कष्ट होंगे तब चैतन्य के स्मरण से इन कष्टों को हम हल्का कर सकेंगे, आगे चलकर हम इन्हें निर्मूल कर सकेंगे।

देह धन या कुटुंब के मोह में अपना जीव फासता हो तो समझना चाहिए कि चैतन्य का स्मरण जो हमेशा होना चाहिए वह नहीं हुआ है।चेतन्य के प्रति यथार्थ अनुराग अपने चित्त में अभी तक पैदा नहीं हुआ है।

मोह, आसक्ति या राग यह भी एक शक्ति है। जहाँ शक्ति है वहां उसका कार्य होता है। फिर वह अच्छा कार्य हो या बुरा, परंतु कार्य तो होता ही है। मन में रहीं हुई इस शक्ति को हम कहां, कैसे उपयोग करते हैं ,यही मुख्य प्रश्न है।

मन की इस शक्ति को चेतन्य की और परिवर्तित करने से मोह,आसक्ति या राग चेतन्य के संबंध में उत्पन्न होगा ,देह, कुटुंब या धन के संबंध में नही होगा। यदि चेतन्य के संबंध में अपने चित्त में अनुराग पैदा नहीं हुआ हो तो चेतन्य के संबंध में आसक्ति नहीं होगी तो फिर देह , कुटुंब या धन की आसक्ति एवं मोह किस तरह नष्ट होगा?

इस तरह चिंतन कर चैतन्य पर अनुराग पैदा करने का प्रयत्न करना चाहिए।

वर्षो तक वाचन, सत्संग या प्रभु- भक्ति आदि करने पर भी शांति नहीं मिलती हो तो हमें समझना चाहिए कि सत्संग, वाचन या प्रभुभक्ति द्वारा चेतन्य की भक्ति अपने चित्त में पैदा नहीं हुई है।

इस दिशा में हमें इतनी गति करनी चाहिए कि चैतन्य का स्मरण होते ही अपनी आंखें अश्रभीगी और सपना देह रोमांचित बन जाए ।

मां को बालक की या बालक को मां की स्मृति होते ही आँखों में से आंसू बहने लगते हैं । चेतन्य की स्मृति भी इसी प्रकार होनी चाहिए । कि अपने आप आंसू आने लगे और रोम रोम का विकस्वर हो जाए । बाह्य दुनिया में हिमालय या गंगा नदी को देखते ही अद्भुत के भाव प्रकट होते हैं । , प्रभात समय उगते हुए सूर्य को देखते ही यह कितनी अद्भुत वस्तु है । ऐसे भाव पैदा होते हैं । चैतन्य तो हिमालय , गंगा और सूर्य से भी अद्भुत वस्तु है । सूर्य चाहे कितना भी प्रकाशक हो पर वह चेतन्य को जान नहीं सकता ।

सूर्य को चेतन्य का ज्ञान कभी नहीं होता ।

जबकि चैतन्य द्वारा सूर्य आदि संपूर्ण जगत का ज्ञान होता है ।

अतः उनसे यह महान है । सूर्य चेतन्य को नहीं जानता किंतु चेतन्य सूर्य को जानता है ।

इससे चेतन्य कितनी अद्भुत और अलौकिक वस्तु हुई ।

इस तरह चेतन्य का बार – बार स्मरण होता रहे तो शांति का अनुभव हुए बिना नही रहेगा । चैतन्य का सतत स्मरण यदि चलता रहे तो कुटुंब , काया एवं धन का मोह भी चला जाएगा । सिर्फ कर्तव्य बुद्धि रहेगी । चैतन्य भक्ति का यह अद्भुत फल है ।

चेतन्य की भक्ति का दूसरा फल यह है कि चैतन्यधारी सभी जीवो को अभैद् बुद्धि से देखना । भेद बुद्धि अशांति मोह और शोक को बढ़ाती है । चैतन्य अंश को लेकर सभी जीवात्माओ के साथ अभेद बुद्धि समता पैदा कराती है , शांति का अनुभव कराती है और ज्ञान व आनंद की वृद्धि करती है ।

चैतन्य की महिमा को देखना और चेतन्य अंश से सर्वत्र तुलय्ता का अनुभव करना , यह सुख और शांति पाने का , सभी देश काल में अनुभवसिद्ध राजमार्ग है ।

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