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आत्मध्यान

आत्मानुभव करने के लिए जितनी जरूरत वैराग्य की है, विषयों और कषायों को मंद करने की है उतनी जरूरत आत्मध्यान की भी है। आत्मध्यान के लिए सुबह का समय श्रेष्ठ है । सुबह ब्रह्मा मुहूर्त में निंद्रा का त्याग कर, आत्मध्यान के लिए अभ्यास करने से वह शीघ्र फलीभूत होता है।

ध्यान के समय आनेवाले अन्य विचारों को रोकने के लिए सर्वश्रेष्ठ उपाय जाप है । इष्ट देव के नाम का जाप सतत चालू रखने से आयोग्य विचार अपने आप रुक जाते हैं। एक और वैराग्य और दूसरे और जाप का अभ्यास चालू रहे तो आत्मानुभव प्राप्त करने की चाबी हाथ में आ जाएगी।

अपनी इच्छा बिना एक भी विचार या भाव चित्त में उठे ऐसी मानसिक स्थिति अगर हम निर्माण करते हैं तो तत्क्षण ही हम शांति का अनुभव कर सकेंगे।

मन में एक के बाद एक विचार आते रहते हैं । उसमें राग-द्वेष के भाव उत्पन्न होते रहते हैं और उसके द्वारा आत्मा की शांति में बांधा पहुंचती है। इस बाधा से छूटने के लिए शीघ्रातिशीघ्र विचारों और भावों को संयमित करने का अभ्यास प्रारंभ करना चाहिए।एक और वैराग्य हो और दूसरी और नाम का जाप हो तो उसके द्वारा अपनी आत्मसुरक्षा होती है। इन दोनों प्रकार के अभ्यास में जैसे-जैसे सफलता बढ़ेगी वैसे-वैसे आत्मा में अनुपम शांति का अनुभव होगा।

देह और उसके धर्मो संबन्धी लगाव के बदले आत्मा और उसके गुणों में लगन लग जाए तो आत्मध्वनि की झंकृतिवाला चेतनमय जीवन शुरू हो जाएगा और आत्मा की अखंड शांति अपने लिए स्वाभाविक बन जाएगी। देह में रहे देही के अनुभव की तीव्र अभिलाषा को जिव के रोम- रोम में पैदा करने के लिए इष्ट का जाप और अनिष्टकारी विचार – वाणी आदि का पूर्ण रूप से त्याग करना बहुत जरूरी है।

दर्शन के लिए श्री अरिहंतो की मूर्ति और उसका आकर प्रतिनिधित्व को धारण करता है। स्मरण के लिए मंत्र और उसके वर्ण प्रतिनिधित्व धारण करते हैं। एक संबंधी का ज्ञान, संबंध के कारण उसके दूसरे संबंधी का ज्ञान अवश्य कराता है।

वाच्य – वाचक, स्थाप्य स्थापक, कार्य- कारण आदि संबंध है, उसी प्रकार सद्रशता का भी एक संबंध है और विसद्रशता का भी एक संबंध है।

वाचक पद का ज्ञान वाच्य का स्मरण करवाता है और वाच्य पदार्थ का ज्ञान वाचक पद का स्मरण करवाता है । इस न्याय से श्री अरिहंत पद उसके वाच्य श्री अरिहंत परमात्मा का स्मरण वाच्य वाचक संबंध के कारण करवाता है और श्री अरिहंत परमात्मा का स्मरण शुद्ध आत्म स्वरूप का स्मरण सादृश्य संबन्ध के कारण करवाता है। श्री अरिहंत पद से श्री अरिहंत परमात्मा और श्री अरिहंत परमात्मा से निज शुद्ध आत्मा का स्मरण होता है।

श्री अरिहंत की मूर्ति से श्री अरिहंत परमात्मा का और श्री अरिहंत परमात्मा से निज शुद्ध आत्मा का स्मरण होता है।

श्री अरिहंत परमात्मा के साथ संबंध रखनेवाली किसी भी वस्तु का ज्ञान जिस प्रकार से अरिहंत परमात्मा का स्मरण करवाता है उसी प्रकार निज शुद्ध आत्मा का भी स्मरण करवाता है ।

श्री अरिहंत के साधु ,श्री अरिहंत का धर्म श्री अरिहंत का संघ या श्री अरिहंतो द्वारा उपदिष्ट तत्वज्ञान और श्री अरिहंतो द्वारा कथित क्रिया- अनुष्ठान एक और श्री अरिहंत परमात्मा का और दूसरी और अपने शुद्ध आत्मा का स्मरण करवाते हैं।

जिस प्रकार सादृश्य संबंध अपने शुद्ध स्वरूप का स्मरण करवाता है उसी प्रकार विसदृश संबंध अपने अशुद्ध स्वरूप का भी स्मरण करवाता है। दोनों स्वरूपों का स्मरण कराने के कारण श्री अरिहंत का स्मरण सम्यक्त्व को निर्मल करता है। शक्ति से शुद्ध और व्यक्ति से अशुद्ध ऐसा अपनी आत्मा का स्वरूप श्री अरिहंत के स्मरण से ज्ञात होता है।उसी से एक और अभिमान और दूसरी और दीनता ,इन दोनों दोषो का क्षय होता है।

अशुद्ध स्वरूप के स्मरण से अभिमान का नाश होता है और शुद्ध स्वरूप के स्मरण से दीनता का नाश होता है।

इस प्रक्रिया के फलस्वरूप अंत में निज शुद्ध आत्म स्वरूप का साक्षात्कार होता है। स्वयं और श्री अरिहंत अभिन्न है ,ऐसे सत्य का तत्व जीवन में प्रतिष्ठित होता है।

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