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विचार और विवेक

गुप्त ऐसे ब्रह्मा का अनुभव करने के लिए उसका मूल्य भी देना चाहिए ।सबसे अधिक मूल्यवान ब्रह्मा को प्राप्त करने के लिए अपने पास रहा हुआ सबसे अधिक मूल्यवान जो ‘अहं’ है उसे दे देना चाहिए, उसे छोड़ देना चाहिए। ‘अहं’ का विसर्जन ही ‘अहं’ का सर्जन है। ब्रह्मा व्यक्ति नहीं परंतु ऐसी अनुभूति है। आकाश के साथ मिल जाने के लिए आकाश जैसा बनना चाहिए। आकाश रिक्त और शून्य है ,उतना ही ब्रह्मा मुक्त और असीम है ।

ज्ञान – ज्ञेय, द्रष्टा- दृश्य जब तक भीन्न है तब तक सत्य हासिल नहीं होगा। स्वयं के साक्षात्कार में अन्यत्व लुप्त हो जाता है इसलिए ‘स्वयं’ यही सत्य है। वहां ज्ञाता,ज्ञेय और ज्ञान एक ही है।

विचारों की सीमा ज्ञेय तक है। विचार स्वयं ज्ञेय और दृश्य है। अज्ञात और अज्ञेय को जानने का साधन ज्ञेय नहीं बन सकता ।शून्य से निर्वाण और पूर्ण से ब्रम्हा प्राप्त किया जा सकता है।

निर्वाण और ब्रह्मा शब्द से भिन्न है किंतु अर्थ से एक है। शून्य को जानने के लिए कोई शब्द या प्रमाण नहीं है। शून्य यह भाव नहीं है, अभाव भी नहीं है ,किंतु अव्यक्त है। अव्यक्त का अर्थ वाणी और विचारों से व्यक्त नहीं किया जा सकता। शून्य का भी वही अर्थ है । जिसका भाव वाणी के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता वह अभाव है । वस्तु रूप से अभाव नहीं , परंतु सद्भाव है। वाणी रूप से सद्भाव नहीं किंतु अभाव है।

ब्रह्मा गुप्ततम है । उनका उसका समस्त सार कहे हुए प्रतिपादन में है । उसे पाने के लिए ‘अहं’ रहित स्वयं की अनुभूति ही सार्थक बनती है।

विचारों के साक्षी बनो, मालिक मत बनो, विचारों को तटस्थ भाव से देखो किंतु पकड़ो नहीं। पकड़ोगे तो विचारों से पार नहीं पहुंच पाओगे , विचार से जो परे है , उसे प्राप्त नहीं कर सकोगे। विचार यात्री है ,मन उसके रहने की धर्मशाला है और धर्मशाला यह अपना घर नहीं है ।

विचार मात्र विचार है। उसमें अच्छी- बुरी भावना बंधन है। बंधन रहित होने के लिए साक्षीभाव आवश्यक है।

साक्षीभाव यानी राग भी नहीं, द्वेष भी नहीं। इससे विचार अपने आप बंद हो जाते हैं। विवेक स्वकीय है और विचार परकीय है। विचार शून्य है और विवेकपूर्ण है। विवेक प्रज्ञा है जो प्रकाश और परमात्मा की तरफ लेकर जाता है। विचार रेती है और विवेक रत्न है। विचार मिट्टी है और विवेक हीरा है। रत्न और हीरे प्राप्त करने जैसे है, रेती और मिट्टी अपने आप चले जाने वाले हैं।

छोड़ना नकारात्मक है, दुःख है,दमन है। प्राप्त करना आनंद है, सुख है, शांति है। सपनों को छोड़ना नहीं है , सिर्फ जागृत होना है। जागृत होने मात्र से स्वप्न चले जाते हैं।

त्याग कोई क्रिया नहीं है, ज्ञान का सहज परिणाम है। त्याग में जिसका त्याग होता है वह निर्मूल्य है। जिसकी प्राप्ति होती है वह अमूल्य है। त्याग से बंधन टूटता है और मुक्ति मिलती है। तुच्छ को छोड़ना है और सर्वस्व प्राप्त करना है।

विचार को पकड़ कर न रखें, उसके प्रवाह में न डूबने से सर्वस्व मिल सकता है । विचारों को साक्षीभाव से देखना है।उसमे तन्मय नहीं होना है ।ऐसी तटस्थ अवस्था का प्रगटीकरण विवेक दृष्टि द्वारा होता है , फिर आत्मा की अनुभूति का साक्षात्कार अपने आप होने लगता है ।

जगत के पदार्थों का सच्चा स्वरूप और मूल्यांकन होने पर ही जीवन में शांति के दरवाजे खुलते हैं । अपने भीतर अनंत शक्ति एवं अनंत शक्ति के भंडार परमात्मा बिराज रहे हैं। परंतु अपना उनके साथ होने का संबंध टूट गया है और बाहर के पदार्थों के साथ संबंध जुड़ गया है।

बाहरी पदार्थों के रंग – रूप क्षण -क्षण बदलते रहते हैं क्योंकि वे विनाशी है। उन्हें अपना कोई मूल्य नहीं है किंतु हमने ही उन पदार्थों का मूल्य आंका है ।

हमारे लिए सोने की अंगूठी की भी कीमत है परंतु हाथी के लिए सोने की अंबाड़ी हो फिर भी उसे उसकी कोई कीमत नहीं है। यदि हम ही पदार्थों को दिया हुआ मूल्य वापस ले लेंगे तो जीवन के अनेक क्लेश और संताप दूर हो जाएंगे ।

अपने अंतर के अति गहन तल में अंतरात्मा रूप से परमात्मा बिराजमान है। वहां अनंत आनंद और अनंत शक्ति है । उसके साथ संबंध बांधने की कला हमें ग्रहण करनी चाहिए। यह कला ग्रहण करने से आनंद, शक्ति और परम तृप्ति का आगमन होगा, उससे जीवन में स्फूर्ति ,तेज तथा प्रसन्नता अलग, निराली ही मिलेगी ।

इस कला का नाम ‘नमो’ है। वह मन को ग्रहण करने जैसी है। जिसका मन इसे ग्रहण करता है वह संसार में से छूटकर आत्मा का राज प्राप्त करता है ।बाहर झुकने से कोई अर्थ नहीं है। आप सिंहासन को सौ बार प्रणाम करें या सो बार लात मारे , वहां से कोई प्रतिक्रिया नहीं होती क्योंकि वह संवेदन शून्य, उपयोग रहित जड़ पदार्थ है। झुकना ही -नमस्कार करना है ,अपने में रहे हुए परमात्म स्वरूप को, वहां ही अक्षय सुख का सागर उछल रहा है । परम ऐश्वर्य का भंडार वहां फैला है।

अनादि काल के बहिर्भाव को अल्प काल में संपूर्ण रूप से हनन नहीं किया जा सकता। उसके लिए निरंतर अभ्यास जरूरी है। बीच में आनेवाले विघ्नों को दृढ़तापूर्वक दूर करने से सफलता प्राप्त हो सकती है।

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