योग यानी निर्विचार स्थिति, ज्ञान यानी आत्मनिष्ठा, भक्ति यानी भगवन्निष्ठा।
‘सर्व खल्विदँ ब्रह्मा’। यह श्रवण का विषय है । फिर मन द्वारा ‘अहं ब्रह्मास्मि’ एसा संशयरहित ज्ञान होता है । सभी साधक आत्माओं में इतनी योग्यता नहीं होती , इस कारण ज्ञान मार्ग में ध्यान योग की सहायता एक या अन्य प्रकार से लिया जाती है। ज्ञान मार्ग में ज्ञान का शुद्ध साधन तो श्रवण और मनन ही है । योग द्वारा चित्तवृत्ति का निरोध होने से आनंद स्वरूप आत्मा का अनुभव साधक जीव को होता है । इस अनुभव से अपने स्वरूप संबंधी संशयो का नाश होता है । समय बीतने पर संशय रहित ज्ञान प्राप्त होता है ।
भक्ति मार्ग के साधको को ‘नाहंकर्ता,प्रभु: कर्ता’ ऐसा अनुभव होता है। साथ ही समाधि अवस्था ,निर्विचार स्थिति, अगाध शांति ,भगवान में स्थिति ये सभी एकार्थवाची शब्द है ।
जहां विचारशून्य स्थिति है ,वहां आनंद स्वरूप आत्मा तो है ही। निद्रा में भी सत्संग होता है ,क्योंकि उस समय सिर्फ सत स्वरूप आत्मा स्वयं होती है। मानस शास्त्र का नियम है कि जिस वृत्ति में आपको निद्रा आएगी वह वृत्ति निद्रा दरम्यान अंतरमन में कायम रहेगी ।
श्री परमेष्ठीभगवन्त सत के संग में होते हैं इस कारण उनका स्मरण भी सत्संग कहलाना चाहिए। निद्रा यह सत्वगुण प्रधान तमोगुण है ।
स्वपिति: ‘स्वं आत्मानं अपिति इति स्वपिति’ अर्थात अपनी आत्मा में गया है, आत्मा को प्राप्त हो गया है यानी आत्मा का ज्ञान आत्मा में -आत्मा के स्वरूप आत्मा के स्वरूप में जाना।आत्मा का आत्मा के स्वरूप को प्राप्त करना। यह स्थिति सत्वगुण ही है। उसके साथ तमोगुण की अज्ञानता और पामरता भी होती है। इसलिए सत्वप्रधान तमोगुण कहलाता है।
ऐसे तो सत्व, और रजस, ये तीनों गुण प्रतिसमय होते हैं। सत्संग से विचारशक्ति जागृत होती है। अज्ञान से अशुद्ध बने मन से होने वाले विचार बंद हो जाते हैं और सत्य की शुद्ध विचार शक्ति ऋंतभरा प्रज्ञा कार्य करती है ।
शांत और स्थिर मन साहजिकता से विशुद्धि पूर्वक अनंत के प्रति विकसित हो सकता है। शांति और एकांत में अनंत ऐसी आत्मा प्रकट होती है । विचार नहीं करना यह भी ध्यान है (ध्यान की पूर्व भूमिका है )। जब तक मन क्रियाशील है, तब तक सत्य की प्राप्ति नहीं हो सकती । जब मन शांत होता है तब सत्य की अनुभूति होती है।
विचार और वाणी से जो परे है, वह सर्वोत्तम भाषा है। मन को आत्मा में स्थापित करना, विलीन करना यही स्वस्थता है, प्रशांत अवस्था है, आत्मनिष्ठा है, ज्ञानदृष्टि है।
मन का स्वरूप कैसा है यह खोज करोगे तो वह अदृश्य हो जाएगा। विचार से भीन्न मन जैसी कोई चीज ही नहीं है ।
ऊंचा चडना हो तो उसे भार रहित होना चाहिए । परमात्मा तत्व तक अंतिम ऊंचाई पर पहुंचना हो तो मन को शून्य की पराकाष्ठा पर पहुंचना पड़ेगा । विचार भी परिग्रह है । धन संचय स्थूल परिग्रह है, विचार संग्रह सूक्ष्म परिग्रह है ।
सत्य एक है, विचार अनेक है । सत्य के साक्षात्कार का द्वार विचार नहीं बल्कि निर्विचार अवस्था है।
विचारों का संग्रह वह मन है । विचार तो बाहर से आए हुए धूल के रज कण है । उसे बंद किया जाए तो शेष रहे निर्दोष चैतन्य का ही दर्शन होगा । विचारों को छोड़ना मुश्किल जरूर है लेकिन सर्वथा अशक्य नहीं है । मन को सावधानीपूर्वक प्रारंभ में शुभ विचार में और फिर धीरे-धीरे शुद्धत्व के पक्ष में जोड़ने से अंत में मन शांत हो जाएगा । आत्म दर्शन की, आत्मानुभूति की तीव्र अभिलाषा जिनके हृदय में खिलती है, वह अपने मन को निर्विकार कक्षा तक पहुंचाए बिना नहीं रहते हैं ।
स्थूलता में से सूक्ष्म में, सुक्षमता मै से सूक्ष्मतरता में इसी क्रमानुसार मन, जो सूक्ष्मतम है ऐसी आत्मा में लय होता है और बाद में केवल आत्मा अनुभव गोचर बनती है ।
यह साधना नवकार मंत्र से सुलभ है ।
ज्ञानी पुरुष जीवन में आपड़े कार्य करते हैं, परंतु साक्षी भाव और सर्वात्मभाव से रहते हैं । मन में अभिनिवेश ना होने से करता होते हुए भी अकरता रूप में रहते हैं ।
दर्पण पदार्थ का प्रतिबिंब ग्रहण करता है पर स्वयं निर्लेप रहता है, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष कर्तत्व के अभिमान से निर्लिप्त होते हैं ।
चमड़े के जूते पहने हुए मानव को पूरी पृथ्वी चमड़े से बनी हुई लगती है, उसी प्रकार ब्रह्मानंद का आस्वाद जिसने लिया है उसको समस्त विश्व ब्रह्मानंद से भरपूर लगता है ।
निः स्पृह चित्त वालो को तीन लोक त्रण समान लगते हैं । परिपूर्ण स्वरूप का सतत विचार कीजिए, उसमें निष्ठा रखिए तो वासना है दूर भाग जाएगी ।
अपने असली स्वरूप का जन्म नहीं है, जरा नहीं है, मृत्यु भी नहीं है । अपना निराकार, निर्विकार, सच्चिदानंद, स्वरूप है ।