आत्मज्ञान हेतु नमस्कार और निष्काम कर्म के लिए सामायिक का अभयास जरूरी है ।
आत्मज्ञान के संस्कारों से पूर्व संस्कारों का नाश हो सकता है । निष्काम कर्म द्वारा नए-नए संस्कारों की उत्पत्ति को रोका जा सकता है । आत्मज्ञान हेतु सत्य आत्मा के स्वरूप का बार-बार अनुशीलन आवश्यक है । सत्य का ज्ञान होने पर गुरु का उपदेश तत्वमसी यह मिलता है । इस सत्य के अनुशीलन से अहम् ब्रह्मास्मि का बोध होता है । संसार में किसी भी शक्ति , किसी भी क्रिया, या किसी भी पदार्थ का नाश नहीं होता । इस नियम को विज्ञान भी मान्य करता है । जीव भी पूर्व जन्मों के कार्यों को संस्कार रूप में प्राप्त करते हैं । और वर्तमान जन्म की गाड़ी को आगे चलाते है। मैं शरीर नहीं परंतु अशरीरी हूं, रथ नहीं परंतु रथी हूं, मरणशिल नहीं परंतु अमर हूं, प्रकाश पुंज हूं, किंतु मिट्टी रूप नहीं हूं, ना कोई अस्त्र मुझे छेद सकता है न अग्नि मुझे जला सकती है, ना पानी मुझे पिगला सकता है, न पवन मुझे सुखा सकता है ।
संसार के जीवो को बांधने वाली दो चीजें हैं । एक अविघ्या और दूसरी तृष्णा । वस्तु का वास्तविक ज्ञान न होने से जो कोई कर्म होता है , उसे संस्कार उत्पन्न होते हैं और उनके फल को भोंगते तृष्णा जन्म लेती है । इस अवीध्या और तृष्णा के कारण जीव को बार-बार जन्म धारण करना पड़ता है ।
अविद्या के संस्कार आत्मज्ञान से नष्ट होते हैं
और तृष्णा के कुसंस्कार निष्काम कर्म से नष्ट होते है ।
आत्मज्ञान के लिए नमस्कार और निष्काम कर्म के लिए सामायिक सर्वश्रेष्ठ साधन है ।
आत्मा को निश्चय से वह जान सकता है जो श्री अरिहंत भगवान को शुद्ध आत्मद्रव्य से, शुद्ध केवल ज्ञान गुण और शुद्ध स्वभाव परिणमन रूप से जानता है । कारण कि दलतया परमात्मा
एवं एवं जीवात्मा दल से जीव स्वयं ही परमात्मा है ।
शुद्ध द्रव्य गुण और पर्याय से श्री अरिहंत का वास्तविक स्वरूप से ज्ञान होने से उसी स्वरूप से ध्यान होता है और वह ध्यान संपत्ति का जनक बनते हुए मोह का नाशक बनता है ।
संपत्ति यानी ध्यानजन्य स्पर्शना । द्रव्य, गुण और पर्याय से श्री अरिहंत प्रभु के ध्यान से आत्मा में जो एकमेंकता व् एकसरता की आह्यदक स्पर्शना होती है इसे संपत्ति कहते हैं । वह दो प्रकार से होती है –
संसर्गरोप से और अभेदरोप से, प्रथम, शुद्धात्मा के ध्यान से अंतरात्मा के संबंध में परमात्मा के गुणों का संसर्गरोप होता है और बाद में अंतरात्मा में परमात्मा का अभेदारोप होता है उसका फल अति विशुद्ध समाधि हे ।