Archivers

जीव के दो दोष

अशुद्ध जीव में अनादि काल से अशुद्धि के कारण दो दोषों ने अड्डा जमा लिया है । एक दोष है शुभ क्रिया में आलस्य और अशुभ क्रिया में ततपरता । दूसरा दोष है आत्म स्वरूप का अज्ञान और देहादि स्वरूप में आत्मस्वरूप का भृम । ये दोष जीवो में इस प्रकार जमकर बैठे गये है की जब ज्ञान की महिमा को सुनते है तब क्रिया में प्रमादी बन जाते है और जब क्रिया की महिमा का श्रवण करते है तब ज्ञान के प्रति उपेक्षावाले बन जाते है ।जीव की ऐसी अशुद्ध दशा में उसे वैसे ही उपदेश का सयोग मिले तो वह वैसा दोषी बन जाता है । ऐसी दशा में उसकी शुद्धि तो दूर रही परन्तु अनादिकाल से लगे एक या दूसरे दोष अधिक से अधिक पुष्ट होते जाते है और जीव उससे अधिक अशुद्ध हो जाता है ।

जब जीव को शुद्ध उपदेश देने वाले गुरु मिल जायें और दोनों दोषों में से एक भी पुष्ट न हो पाए इस तरह सावधानी पूर्वक उपदेश दे तब जीव यदि जाग्रत हो तो ज्ञान और क्रिया दोनों की साधना करने वाला बन जाए । उसके द्वारा अशुद्धि का नाश कर शुद्धि को प्राप्त कर सकता है ।

यहाँ ज्ञान शब्द से आत्मस्वरूप का ज्ञान और क्रिया शब्द से हिंसादि अशुभ क्रियाओं का निवारण करने वाली क्रिया समझना चाहिए ।

मोक्षमार्ग में आत्मज्ञान से रहित ज्ञान की कोई कीमत नही है । पूरी दुनिया का ज्ञान उसके पास हो परन्तु आत्मज्ञान उसके पास नही है तो उस ज्ञान की कोई कीमत नही ।

साक्षात् या परम्परा से अहिंसादि भावो पर जोर देने वाली क्रियाओं के सिवाय की किसी भी नाम की क्रिया का कोई मूल्य नही है ।

देश , समाज या धर्म की उन्नति के नाम से आत्मज्ञानशून्य ज्ञान से जिस प्रकार मोक्षमार्ग नही है उसी प्रकार ज्ञान , वैराग्य या अध्यात्मादि के नाम से अहिंसादि शुभ भावनाओ पर जोर देने वाली क्रियाओं का निषेध भी मोक्षमार्ग नही है ।

आत्मार्थी , आत्म कल्याण के अभिलाषी जीवो को इन दोनों के यथार्थ स्वरूप को समझकर इन दोनों में से एक की भी उपेक्षा किये बिना शक्ति के अनुसार आराधक जीवन के लिए निरंतर प्रयास करना चाहिए ।

ज्ञानक्रियाभ्यं मोक्षः
November 21, 2018
आज्ञापालन से मोक्ष
November 21, 2018

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Archivers