मन और बुद्धि इन्द्रियों से भी सूक्ष्म है । मन को दूरदर्शक यंत्र ( Telescope) कहा जा सकता है तो बुद्धि को सूक्ष्मदर्शक यंत्र (Microscope) परन्तु आत्मा इन दोनों से कुछ और ही है । वह दूर से भी दूर ओर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म पदार्थो का ज्ञान करने की शक्तिवाली है ।
शरीर मे या इन्द्रियों में, मन मे या बुद्धि में जानने की , चलने की , या व्यवस्थित कार्य करने की जितनी शक्तियां है वे उनकी स्वयं की नही बल्कि आत्मा की है।
इस दुनिया मे कोहिनूर हीरा अति मूल्यवान कहलाता है । उसे तेज का ‘पर्वत’ कहते है , कोई उसे कौस्तुभ मणि कहते है । जिसके पास यह हीरा हो वह शंहशाह गिना जाता है । इस हीरे की कीमत भले ही कितनी भी हो परन्तु उसे देखने के लिए जिसके पास आँख ही न हो उसके लिए उस हिरे की कीमत कितनी होगी ?
सिर्फ, कोहिनूर ही नही , ऐसे असंख्य हिरे जिसके द्वारा देखे जा सकते है, उस चक्षु की कीमत करोड़ो की नही परन्तु अरबो से भी गिनी जाए फिर भी अल्प है।
पास में हीरा भी हो, चक्षु भी हो परन्तु मन न हो तो ? मन भी हो परन्तु बुद्धि न हो तो ? उस हिरे की कीमत कुछ भी नही। इसीलिए असली रत्न यह हीरा नही किन्तु चक्षु है । बाह्म रत्न को देखने वाली चक्षु वह असली रत्न है अथवा देखे हुए बाह्म रत्न की परीक्षा करके उसकी सही कीमत समझने वाले मन और बुद्धि वे असली रत्न है। और ऐसे में एवं बुद्धि भी जिसके सहाय से काम कर रहे है उस आत्मा रूपी रत्न की कीमत का तो मूल्यांकन ही नही हो सकता, फिर भी उसका स्तर संभालनेवाले विरले होते है।
अपनी दृष्टि भीतर गए बिना आत्मा की सही कीमत समझी नही जा सकती। देह ओर इन्द्रियों से भिन्न ऐसा आत्मरत्न यही सच्चा रत्न है। उसकी ही सही कीमत है। दुनिया में नाम मात्र के तो अनेक द्रव है, पर सच्चा द्रव तो आत्म द्रव है।इस आत्मा की ऊंचाई कितनी है? इस आत्मा का माप कैसा है? इस आत्मा का जीवन कितने समय का है? और इस आत्मा का बल कितना?
ऊँचे में ऊँचा मेरु पर्वत है पर उससे भी आत्मा ऊँची है । गहरे में गहरा स्वयंभूरमण समुद्र है, पर उससे भी गहरी आत्मा है। विशाल में विशाल लोकाकाश है पर उससे भी विशाल आत्मा है। लंबे में लंबा भूतकाल है, पर उससे भी यह लंबी है। भविष्यकाल जितना लंबा है, उससे भी यह लम्बी है। आत्मा का जीवन अद्भुत है। पर्वत की ऊंचाई, पृथ्वी की चौड़ाई, काल की लंबाई भी जिसके आगे अत्यल्प है ऐसे आत्मा की ऊंचाई चौड़ाई गहराई या लंबाई का माप निकाला नही जा सकता क्योंकि वह असीम और अमाप है।
पशुओं में अधिक बलवान हठी और सिंह है, मनुष्यो में अधिक बलवान चक्रवर्ती और वासुदेव है, दोनों में अधिक बलवान इंद्र और अहमिंद्र है, इन सभी से अधिक बलवान आत्मा है।
हाथी, सिंह, चक्रवर्ती, वासुदेव, इंद्र या अहमिंद्र में बल है। वह बल अन्य किसी का नही किंतु उन शरीरों में रहे आत्मा द्रव्य का है। आत्मद्रव्य इतना बलवान है कि चाहो तो लोक को अलोक में ट्रांसफर कर सकता है परंतु वैसा सामर्थ्य आत्मा में तब प्रकट होता है जब उससे ऐसी कुतुहलता व्रत्ति नही रहती , जब उसमे से सभी दोषों का विलय हो जाता है।
बाहर की वस्तुओं का ज्ञान इंद्रियों से हो सकता है, अंदर की वास्तु का ज्ञान अंतः करण से होता है। बाहा इंद्रियों से देखने पर पानि से पत्थर कठिन लगता है, उसी वस्तु को विचार रूप अंतरंग इंद्रियों से देखने पर उससे विपरीत लगता है। पर्वत के भारी पत्थर भी यदि नदी के पानी के प्रवाह से टूटकर टुकड़े, टुकड़े में से कंकर, कंकर में से रेती के रूप में पलट जाते है। इसी तरह पत्थर के टुकड़े, टुकड़े के कंकर, कंकर की रेती बनाने वाला कोई है तो वह है समुद्र या नदी का पानी।
बाह्य स्पशेन्द्रिय से ज्ञात होने वाला बाह्य पत्थर भी पानी से ज़्यादा नर्म है और बाह्य स्पशेन्द्रिय से ज्ञात होने वाला नरम पानी भी भरी पत्थर से भी ज़्यादा भारी है, ज्यादा मजबूत है ज़्यादा बलवान है।
लोहे का एक टुकड़ा पानी से भरे एक टोप्ले में रखा जाये तो थोड़े फिनो बाद वह टुकड़ा पानी से जंग खा जाता है, उसकी छोटी छोटी लाल रेती बन जाती है, और वह रेती छोटी से बनकर हवा में उड़ जाती है। इस तरह देखा जाये तो पानी लोहे से भी अधिक बलवान निश्चित होता है।
इसी तरह बाह्य द्रष्टि से या स्थूल द्रष्टि से विचार करते हुए कर्म भरी एवं बलवान लगता है। और आत्मा हलकी एवं निर्बल लगती है, परन्तु जब इसी बात पर अंतरदृष्टि से विचार किया जाये तब पानी की तरह बलवान आत्मा ध्यान रूपी व्रष्टि के बल से पत्थर और लोहे की तरह कर्मो को तोड़ सकती है, नाश कर सकती है, चकनाचूर कर सकती है।