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भाव अरिहंत का स्वरूप

‘भाव अरिहंत’ के स्वरूप को जानने के लिए 33 विशेषण बताए गए हैं और वे प्रत्येक विशेषण कितने अर्थगंभीर हैं, यह समझाने के लिए पूज्य श्री हरीभद्रसूरीश्वर जी महाराज ने असाधारण प्रयास किया है।

इस प्रयास के फलस्वरूप हमें जानने को मिलता है कि श्री तीर्थंकर भगवान का संबंध तीन लोक के साथ रहा हुआ है।

उन्होंने तीनों लोकों के समस्त जीवो के कल्याण की कामना की है, तीव्र भावना रखी है। सभी जीवो का आत्यंतिक कल्याण हो, उसका मार्ग एवं उसमें प्रतिबंधक कर्म के समूल क्षय के लिए तीव्र तप किया है, उग्र संयम का पालन किया है, घोर परिषह एवं उपसर्गों को सहन किया है। तदुपरांत गुरुकुलवास में रहकर विधिपूर्वक शास्त्रों का अभ्यास किया है। समस्त साधना के परिणाम स्वरुप विशुद्ध सम्यग्दर्शन और परहित चिंतन का प्रबंध अध्यवसाय उत्पन्न होने से उनको सर्व पूण्य प्रकृतियों में उत्कृष्ट ऐसे तीर्थंकर नाम कर्म की प्रकृति निकाचित होती है।

उस पुण्य प्रकृति के विपकोदय से वे वीतराग होने पर भी तीन भुवन के लिए सुखकारी और भवोदधि से तरानेवाले तीर्थ की स्थापना करते हैं।

इस तीर्थ के आलंबन से करोड़ों जीवात्मा अपना कल्याण करती है। ऐसा अनुपम उपकार, श्री तीर्थंकर परमात्मा की आत्मा से ही हो सकता है, दूसरों से नहीं। उसका कारण बताते हुए व्रतीकार महर्षि ने श्री तीर्थंकर भगवंतो के ‘पूरीसुत्तमानं’ इस विशेषण का वितरण करते हुए फरमाया है कि श्री तीर्थंकरों की आत्माओं में अनादिकालीन विशिष्ट योग्यता होती है और वह योग्यता उनमें उस प्रकार की परार्थ रसिकता उत्पन्न करती है की वरबोधि की प्राप्ति के अवसर पर अपने स्वयं के स्वार्थ को गौण करनेवाले और पर के उपकार को मुख्य बनानेवाले बनते हैं।

यह परार्थ व्यसनीता उनको सर्वश्रेष्ठ पदवी प्रदान करती है। तीर्थंकर पदवी उनकी योग्यता के कारण से है और यह योग्यता उनकी पर परार्थव्यसनिता में प्रेरक बनती है।

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