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औचित्य माता पिता का – भाग 13

जनरेशन गैप के नाम पर:

सभा: माता-पिता पुराने जमाने की हो, मितव्ययता से जीते हो और पुत्र अधिक कमाते हो, मौज मस्ती से जीते हो, यह माता-पिता बर्दाश्त न कर पाए तो जनरेशन गैप के कारण क्लेष पैदा होता है।

यह नया शब्द ‘जनरेशन गैप’ ऐसा लाए हो तो आपकी स्वच्छंदता बढ़ाने में निमित्त बनता है। माता-पिता को दुख हो, ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए। यदि वह कहते हैं कि मितव्ययिता से चलो तो 4 जोड़ी कपड़ों के बजाय 2 जोड़ी ही उपयोग करने में हर्ज क्या है? माता-पिता के दिल को दुख हो यह महत्वपूर्ण है या आपके कपड़े महत्वपूर्ण है? आपके मौज-शौक महत्वपूर्ण है या आपके माता-पिता की इच्छा महत्वपूर्ण है? माता-पिता का उपकार याद रखोगे तो ही इसका पालन हो सकेगा। आज तो जनरेशन गैप के नाम पर आपके अंदर जहर भर दिया गया है। इसी कारण कहा जाता है कि ‘माता-पिता के साथ हम नहीं रह पाएंगे, उन्हें तो उन्हीं के जैसे वृद्धों के साथ रहेगा अनुकूल होगा।’

जनरेशन गैप की बात करो तो माता-पिता 40-50 वर्ष की उम्र के, आप भी 20-25 वर्ष की उम्र के तो आपका बच्चा 2-4 वर्ष की उम्र का। आपका जनरेशन गैप माता-पिता के साथ जैसे हैं वैसे ही अपनी संतान के साथ भी है कि नहीं? तो फिर अपनी संतान के साथ कितनी मीठी-मीठी बातें करते हो? उसे खिलाते हो? वह मांगे वह क्यो लाकर देते हो? उस बच्चे को समझने-समझाने की मेहनत करते हो और माता-पिता को समझने-समझाने की मेहनत करते हो? आजकल के अधिकांश लोग, पुत्र-पुत्री को समझने की मेहनत करते हैं और माता पिता को समझाने की मेहनत करते हैं। दोनों के लिए नियम अलग-अलग क्यों?

सभा: माता एवं पिता के अभिप्राय अलग-अलग हो तो क्या करना चाहिए?

यह अच्छी बात है कि दोनों की बात धर्मविरोधी न हो तो माता को पहले संभाले, और बाद में पिता की बात माने। क्योंकि माता का ह्रदय कोमल होता है। उसकी बात आप नहीं मानेंगे तो वह हताश हो जाएगी, उसे बुरा लग जाएगा, इसीलिए उसे पहले संभाले।

माता एवं पिता में पहला स्थान माता का है। शास्त्र ने कहने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हितोपदेश की २७६वीं गाथा में माता की बात को विशेष आदर देने की बात कही गई है।

सभा: माता-पिता से प्रेम है; किंतु उनके प्रति विनय विवेक में क्यों फर्क पड़ जाता है?

क्योंकि उन्हें आपके अनुकूल बनाने की आपकी भावना है। उनके अनुकूल होकर रहने की भावना नहीं है। यह जब आपके अनुकूल नहीं बन पाते, तब उनके प्रति आपके विनय-विवेक में फर्क पड़ जाता है।

मेरे पैर दबाने आप आओ और मुझसे कहो, ‘साहब! जरा पैर लंबा कर दो तो दबाने में सुविधा रहे। तो मुझे जैसे पैर रखना अनुकूल होगा वैसे ही आपको पैर दबाना चाहिए कि आपको जैसे पैर दबाना हो वैसे आप मुझसे पैर राखवायेंगे? व्यक्ति की ६७ बोल की सज्झाय में विनय की बात में कहा गया है कि ‘भक्ति करें अनुकूल’। जिसकी भक्ति करनी हो वह उसे अनुकूल हो वैसे ही करनी चाहिए। उसे अनुकूल हो वैसी ही द्रव्य तथा भावभक्ति करनी चाहिए।

सभा: माता-पिता का राग किया, ऐसा नहीं कहा जाएगा?

यह राग प्रतिदिन करें! दीक्षा लेने के बात आए तब राग छोड़ देना! बात को उड़ा मत दो! गंभीरता से सोचो यह मेरे लिए नहीं करना है। अपने कल्याण के लिए करना है। आध्यात्मिक विकास का मूल इस बात में है।

आप जब तक अपने कसाई नहीं जीतोगे, तब तक साधना मार्ग पर पदार्पण संभव नहीं है। इनमें भी जब तक मान कषाय नहीं जीतोगे तब तक धर्म का आद्य चरण-विनय आपके अंदर प्रकट नहीं होगा। मान को मारने से ही विनय प्रगट होता है और यह विनय ही सब गुणों का मूल है।

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