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औचित्य माता पिता का – भाग 6

वह घर नहीं बल्कि श्मशान है:

कई बार तो हमें मांगलिक सुनाने ले जाए और बाद में हमसे पूछे कि ‘महाराज साहब! आपको क्या लगता है?’ इसलिए शुरुआत में तो मैं यह समझा जाता था ‘कि अच्छा होगा या नहीं’ यह पूछते होंगे। किंतु धीरे से बोले कि, ‘महाराज साहब! डॉक्टर ने तो साफ इंकार कर दिया है, वह जीवित नहीं रहेंगे, किंतु अभी और कितना समय लगेगा?

आज-कल तो माता-पिता की बीमारी बढ़ती जाए और उपचार का खर्च बढ़ता जाए तो पुत्र ऐसे-वैसे लोगों से कहता फिरता है ‘न जाने बूढ़ा अभी और कितना समय खींचेगा? अब तो भगवान छुटकारा दिलाए तो अच्छा।’ कई तो अच्छी भाषा में बोलते हैं कि ‘उनका दु:ख अब देखा नहीं जाता, भगवान बुला ही ले तो अच्छा-उन्हें भी मुक्ति मिल जाए और हमें भी छुटकारा मिले। यह वार्तालाप आपके माता-पिता सुने तो उन्हें कैसा लगेगा? इसके लिए बाद का जीवन उनके कैसे जिया जाएगा? जिस घर में ऐसे कमजोर संवाद बोले जाए, वह घर दुर्भागी है। उनका भाग्य खत्म हो गया। वह घर नहीं श्मशान है, ऐसा कहूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आपके घर में तो ऐसा नहीं है न महानुभाव? जिनके घर में तीर्थरूपी माता-पिता हो, वे उनकी सेवा में जीवन बिताने का संकल्प करेंगे तो ही उनकी सेवा के जितने प्रकार बताए वे सब आपको काम लगेंगे। बाकी ऐसा संकल्प तो करो ही नहीं और अकेला में बात करूं तो ऐसे ही संवाद सुनने को मिलेंगे।

सभा: माता-पिता का दुख देखा नहीं जाता हो तो माता-पिता छूटे ऐसा न हो?

कैसे भी शारीरिक दु:ख हो, किंतु माता-पिता को आप इस तरह संभाले की ऐसी परिस्थिति में उन्हें दु:ख हो तो भी वह दु:खी न हो। बीमारी में भी आप माता-पिता को ऐसी समाधि दो कि माता-पिता को लगे कि ‘मेरी बीमारी लंबी चली तो भी मुझे कोई तकलीफ नहीं। मेरे कर्म खप जाएंगे। मेरा पुत्र कैसा धार्मिक है, पूरा दिन मुझे कैसा धर्म सुनाता है, चार शरण का स्वीकार कराता है, सुकृत की अनुमोदना कर आता है, समय-समय पर गुरुभगवंतों को लाकर निर्यमना कराता है, दु;ख में भी मुझे शांति-समाधि मिले ऐसे शुभ विचार देता है, महापुरुषों के चरित्र सुनाता है, परलोक का पाथेय दिलाता है। परलोक में कहां जाना है यह तय नहीं है, किंतु मरकर किसी ऐसी ही गति में गया और वहां मुझे कोई समाधि दिलानेवाला नहीं मिला तो आर्तध्यान करके कुछ नए कर्म बंधुगा। इससे तो यहा मेरे जितने कर्म खप जाए उतना ही अच्छा। मेरी सद्गति तथा मुक्ति की निश्चित भेंट देता है।’

आप अपने माता-पिता को समाधी देते हो, यह दृश्य आपकी संतान देखे तो उन्हें भी यह संस्कार मिलेंगे। समय आने पर वह भी आपको ऐसी समाधि दिलाएंगे। इसके बजाय आपने अपने माता-पिता की सेवा भक्ति करके समाधि नहीं दी होगी तो संतानों में भी ऐसे संस्कार नहीं पड़ेंगे। वह आपको समाधि नहीं दिलाएंगे। आपके साथ आप जैसा ही कमजोर व्यवहार करेंगे, आप की उपेक्षा करेंगे तथा वे भी दुर्गति में जाएंगे। दुनिया में कहावत है कि ‘जैसा बोओगे वैसा पाओगे’ तथा ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ हमें ऐसे कमजोर आशय से नहीं करना है। अपने आत्म कल्याण के लिए करना है।

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