श्रंगार गर्भित वर्णन सुनकर गुरुदेव बोले-
“पलित्तओ! तू राग की अग्नि प्रदीप्त हो गया है।
नागेंद्र ने कहा, “गुरुदेव! कृपा करो, एक मात्रा और बढ़ा दो। ताकि ‘पलित्तओ, के बदले ‘पालित्तओ’ हो जाऊ। पालित्तओ अर्थात पादलेप विद्या वाला। इस विद्यापूर्वक पैर पर लेप करने से व्यक्ति इच्छा अनुसार आकाश में गमन कर सकता है।
शिष्य की प्रतिभा से गुरुदेव अत्यंत प्रभावित हुए और उन्होंने नागेंद्र मुनि को आकाश गमन की पादलेप विद्या प्रदान की।
नागेंद्र मुनि की उम्र 10 वर्ष की ही थी, किंतु उनकी प्रतिभा वृद्धों को भी आश्चर्य में डाल देती थी। अतः गुरुदेव ने उन्हें योग्य जानकर आचार्य पद से विभूषित किया।
नागेंद्र मुनि अब पादलिप्त सूरी हो गए।
पादलिप्त सूरी महाराज वय में छोटे थे, किंतु उनका अंतरंग व्यक्तित्व आकाश की भांति विराट था। अल्प वय होने पर भी उनका विशिष्ट बाह्य व्यक्तित्व था। उनमें भीम और कांत दोनों गुणों का संगम था। वे वात्सल्य के महासागर थे। उनके वात्सल्य के अमीपान के लिए लोग सदैव तरसते थे। दूर सुदूर तक उनके अंतबाह्य व्यक्तित्व की ख्याति फैल चुकी थी।
एक बार विहार कर पाटलिपुत्र पधारें। पाटलिपुत्र का शासक था मुरण्ड। आचार्य श्री की वाक छटा और बुद्धिचातुर्य ने उसके मन को मोह लिया था। गुरुदेव की वाणी सुनने की उसके उसे तीव्र लालसा थी। आचार्य श्री के उपदेशों से वह इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उसने जैनधर्म अंगीकार कर लिया।
एक बार आचार्य भगवंत की उपस्थिति में राजा ने राज्यसभा में कहा, ‘राजकुल में महान विनय है।’
तत्काल आचार्य देव ने राजा को समझाते हुए कहा, नहीं। जो विनय गुरुकुल में है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है, चाहे तो उसकी परीक्षा कर लो।
राजकुल में ज्यादा विनय या गुरुकुल में? सभी के हृदय में में इस प्रश्न के समाधान की जिज्ञासा पैदा हुई।
आचार्य श्री ने कहा- आप अपने राजकुमार को बुलाऐं और उसे “गंगा किस और बहती है? इसकी जानकारी के लिए भेजें।”
राजा ने तत्काल राजकुमार को बुलवाया। थोड़ी देर में राजकुमार उपस्थित हो गया।
राजा ने कहा, “कुमार जाओ। देखकर आओ, गंगा किस और बहती है।”
महाराजा की आज्ञा सुन राजकुमार ने राज्यसभा से प्रस्थान किया।
थोड़ी ही देर बाद आचार्य श्री ने अपने नूतन शिष्य को बुलाया और उसे आज्ञा कि कि जाओ। देखकर आओ, गंगा किस और बहती है? शिष्य ने भी आदेश स्वीकार कर नमन किया और वह भी बाहर निकल आए।