दीक्षा स्वीकार
स्वप्न की दुनिया बड़ी विचित्र है। स्वप्न- सृष्टि मानव ह्रदय में अनेक प्रकार के उत्पाद भी मचाती है और आशा की उज्जवल किरणे भी चमका देती है। स्वप्न की अगम्य कल्पना में मानव कभी नंदनवन में पहुँच जाता है . . . तो कभी मरुभूमि की भयावह रेगिस्तान में भी । कभी हर्ष से नाच उठता है. . . . तो कभी शोक से क्रन्दन कर बैठता है। स्वप्न की रंगीली दुनिया में कभी उत्कर्ष के शिखर पर पहुँच जाता है तो कभी गहरी खाई में डूब जाता है।
पण्डितवर्य आर्यरक्षित शय्या पर सोया हुआ था. . . . परन्तु उसकी आँखो में तन्द्रा या निंद्रा नहीं थी. . . वह अपने उज्जवल भविष्य की कल्पनाओं में डूबा हुआ था जैनाचार्य के पवित्र चरित्र के श्रवण के बाद उसके मन में नई आशा और नई किरण प्रस्फुटित हो रही थी।
आकाश में पूर्णिमा का चंद्र अपनी सोलह कलाओं के साथ खिला हुआ था । चंद्र की निर्मल ज्योत्स्ना धरती पर के अन्धकार पट को चीर रही थी।
वातावरण में निरवता व्याप्त थी आर्यरक्षित के मन में जैनाचार्य से मिलने की तीव्र उत्सुकता और उत्कंठा थी। आर्यरक्षित विचारों में खोया हुआ था. . . धीरे-धीरे रात्रि बढ़ने लगी . . . और आर्यरक्षित निद्राधीन हो गया। वह एक नवीन स्वप्नसृष्टि में खो गया।
नदी के नीर की भाँति समय का प्रवाह अस्खलित गति से बहता रहता है। हाँ! कोई उस प्रवाह के बीच नवीन सर्जन कर देता है . . . तो कोई प्रमाद के वशीभूत होकर समय को व्यर्थ गवा देता है।
रात्रि व्यतीत हुई. . . मुर्गे ने बाँग दी . . . मंगल ब्रह्ममुहूर्त में आर्यरक्षित की निद्रा खुली . . . शय्या पर बैठकर उसने परमात्मा का नाम स्मरण किया ब्रह्मअर्चना की। स्नानादि से निवृत होकर वह फिर वह माँ के चरणों में पहुँच गया। उसने माँ के चरणों में बहुमानपूर्वक प्रणाम किया। माँ ने पुत्र को आशीष दी । माँ का मन प्रसन्नता से भर आया।