मृगापुत्र को आँख , नाक, कान, मुख वगैरह शरीर का एक भी अंग मिला नही था। सिर्फ मांसपिंड के रूप में वह जन्मा । उसी स्वरूप में विकास पाया। सिर्फ २६वर्ष की आयु में वो मोत के अधीन बन गया।
मांसपिंड का बना हुआ उसका शरीर था और शरीर में अंगोपांग के बदले सिर्फ छिद्र ही द्रष्टिगोचर होते थे। स्वयं चल न सके। बोल न सके। जीभ से खुराक भी निगल न सके। सतत असह्रा दुर्गंध उसके शरीर में से फैलती थी।
राजकुमार होने के बावजूत इतनी दयनीय दशा उसकी हुई थी। परमात्मा की आज्ञा से इस मृगापुत्र का अवलोकन करके वापिस लौट हुए तथा मृगापुत्र के दर्शनमात्र से वैराग्य का उत्कट आवेश पाये हुए श्री गोतमस्वामीजी ने मृगापुत्र का पिछला जन्म पूछा। प्रभु वर्धमानस्वामी ने वह प्रकाशा।
पहले इस भरत क्षेत्र में शतद्वारपुर नामक नगर था। धनपति राजा वहाँ शासन करता था उसके एक नोकर का नाम था, ‘कूट’। जैसा नाम वैसा गुण।
अत्यंत क्रूर ,घातकी, जुल्मी तथा नास्तिक बुद्धि का वह सिपाई था।
राजा के प्रसन्न होकर५०० गावो का हवाला इस कूट को सौपा। क्रूर प्रकृति का इस सिपाही ५०० गांवों में सच्चे -झूठे जो गुनहगार पकड़े जाते ,उन्हें जालिम यातनाएं देने लगा। खुद के विरोधियो को दोष बिना पकड़ -पकड़कर पीड़ा देने लगा। किसी के कान फोड़ देता , किसी का नाक छेद देता । जीतेजी नरक की वेदना का स्वाद प्रजा को उसने चखाया ।
इस तरह बहुत ही अशातावेदनीयकर्म उसने इकट्टा किया । वृद्धावस्था में इस कूट ने१६महारोग भोगे। अंत में वह मर गया । मरकर यहाँ मृगारानी के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। उसकी भयंकर शारीरिक दुर्दशा के कारण किसीने उसका नाम भी नही रखा । मृगापुत्र के रूप में वह पहचाना जाता है।
यहाँ से मृत्यु पाकर अनन्त संसार भृमण करेगा। सातो नरक में क्रमशः उत्पन्न होगा। समय के लंबे अंतराल के बाद उसे महाप्रयत्न से धर्म प्राप्त होगा तथा अंत में मोक्ष भी प्राप्त करेगा।
-संदर्भ ग्रन्थ :उपदेश प्रासाद -६७