गुरुदेव! पिछले जन्म में मैंने शिवधर्म का पालन किया होगा , उसके सिवाय इस शैवधर्म का इतना दृढ पक्षपात मुझमे कहाँ से जन्मे ?
इस तरह राजा ने आचार्य श्री बप्पभट्टिसुरिश्वरजी महाराज के समक्ष उपरोक्त निवेदन किया । सूरी भगवन्त वर्षो से राजा को मिथ्यात्व से वासित छोड़ देने के लिये समझा रहे थे परंतु उसके लिए राजा बिलकुल तैयार नही था । आचार्य बप्पभट्टसुरी महाराज के प्रति उसे बहुत अनुराग था । खुद के गुरुदेव के रूप में उसने इन सुरीराज को स्वीकारा था । गुरुदर्शन बिना के थोड़े दिन व्यतीत करना भी उसे मुश्किल लगता । फिर भी गुरुदेव के सैंकड़ो बार के उपदेश के बाद भी उसने मिथ्यात्व छोड़ा नही । गुर्वज्ञा के लिये जैन मंदिर बनवाये परन्तु खुद की श्रद्धा तो शैव मंदिरों की तरफ ही अटल रखी । गुरुदेव तथा भक्त राजा आम , दोनों अब उत्तर अवस्था में प्रवेश कर चुके थे । एक बार राजसभा में आचार्यदेव ने बहुत सारी युक्तियोपूर्वक शैव धर्म का खंडन किया । जैन धर्म का मंडन किया ।
इस समय आम राजा ने कहा , गुरुदेव , आप कहते हो वह सच है ऐसा मुझे भी लग रहा है फिर भी शैवधर्म का पक्षपात छोड़ देने का मन नही करता । क्या पिछले जन्म के संस्कार इसमें कारणभूत बनते होंगे ?
इस समय सिर्फ श्रुतज्ञान के सहारे आचार्य भगवन्त ने राजा का पिछला जन्म जान लिया तथा समग्र राजपर्षदा की साक्षी से उसका प्रकाशन किया ।
राजन! इसी भारतदेश में विंध्याचल की गिरिमाला में कालीजर नमक पर्वत है । इस पर्वत की तलहटी में घना जंगल फैला हुआ है इस जंगल में पिछले जन्म में तूने शैवो की तापसी दीक्षा स्वीकारी थी । जटाधारी सन्यासी बनकर तूने जिंदगी भर घोर तप किया । तप के साथ तेरी साधना भी कठोर थी । ऊँचे व्रक्ष की एक मजबूत डाली पर दोनों पैरों को बांधकर तू निरंतर अड़तालीस घण्टो की आतापना लेता । दो दिनों के बाद एक बार फल फूल का आहार करता , वापिस शीर्षासन के साथ दृढ तप शुरू कर देता ।
मोक्ष के लक्ष्य के बिना इस तप तूने एक सौ वर्षों तक किया । अंत में व्रक्ष पर लटकी हुई हालात में ही तूने प्राण त्यागे । म्रत्यु पाकर दूसरे भव में तू आम राजा बना है ।
राजन! मेरी बात का सबुत तुझे प्राप्त करना हो तो विन्धय के उस जंगल में तेरे सेवक को भेज दे । उसी व्रक्ष के नीचे तेरी लंबी जटा अब तक पड़ी है जंहा तू तप करता था । भले ही दशाक व्यतीत हो गए ।
सभा स्तब्ध बनी । विद्वान् लोग भी विस्मित हुए । राजा मंत्रमुग्ध होकर सुनता रहा ।
सूरिजी ने संकेत दिया उस स्थान पर राजा ने राजपुरुषों को रवना किया । थोड़े ही दिनों में तो वे राजपुरुष राजा की पिछले जन्म की जटा लेकर राजसभा में हाजिर हो गए । जटा को देखने के लिए प्रजा ने पहाड़ी की । सब आचार्य बप्पभट्टसुरीजी का जयजयकार करने लगे । पिछले जन्म के सिद्धांत के ऊपर प्रजा श्रद्धायुक्त बनी । सर्वत्र जिनशासन की महिमा फैली ।
– संदर्भ ग्रन्थ : प्रभावक चरित्र