राजरमनिओ को त्यागकर ढंढणकुमार ने दीक्षा ली । बाइसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ प्रभु के चरणों में जीवन को तथा प्रभुजी की आज्ञा में मन को लयलिन बनाया कृष्ण वासुदेव के इस सुपुत्र ने भर जवानी में तथा एक ही देशना सुनकर जब महाभिनिष्क्रमण किया तब कृष्ण ने भव्य महोत्सव मनाया ।
दीक्षा स्वीकारी । उसके बाद ढंढणमुनि को प्रबल लाभांतरायकर्म उदय में आया । जिनके साथ वे भिक्षाचर्या करे उन्हें जल्दी से तथा सुन्दर भिक्षा नही मिले । स्वयं अकेले भिक्षाटन करे तो धनवानों तथा स्वजनों के घर में भी कल्प्य भिक्षा प्राप्त कर नही सके ।
यह स्थिति देखकर दीडमूढ़ बने हुये मुनि त्रिभुवनपति के पास पहुचे । कारण पूछा । भगवन ने तब ढंढणमुनि का पिछला जन्म उन सबको सुनाया ।
मगधदेश में धनपुर नामक शहर था । जितशत्रुराजा वहाँ राज्य करता था तथा इस राजा का पाराशर नामक तू सामंत था ।
एक बार चातुर्मास का समय आया । राजा ने राज्य की मालिकी के खेतों में खेती करवाने का निश्चित किया । खेती के विषय की तमाम व्यवस्था सँभालने के अधिकार तुझे सौपें । तूने खेतमजुर इकट्ठे किये । खेती शुरू करवाई । सभी मजदूरों को इस समय के दरम्यान राज्य की तरफ से भोजन मिलने वाला था । जिसकी व्यवस्था भी तेरे हाथ में थी ।
हरेक मजदुर खुद का पगार के हिसाब से निश्चित किया हुआ काम करते ।उसके बाद भोजन मांगते । तब तूने उन मजदूरों पर अन्यायकारी हुकूमत की , पहले मेरी खेती में 6-6 बार हरेक को हल चलाना पड़ेगा । फिर भोजन मिलेगा ।
हम तो राज्य की नोकरी करते है । पगार भी राज्य देता है राज्य का काम कर दिया है । तुम्हारा निजी काम हमें किसलिये करना चाहिए ? मजदूरों ने नाराजीपूर्वक दलील की ।
तब तक तिमहे भोजन नही मिलेगा । तूने हुकूमत की ।तू अधिकारी था मजदुर लाचार थे । तेरी सत्ता का दुरूपयोग तूने किया । मजदूरों के द्वारा जबर्दस्ती तेरे खेत जुतवाये । उसके बाद ही भोजन दिलवाया ।
भूखे-तरसे मजदूरों से तूने जो ६-६बार खेत जुतवाया, इतने समय तक उन्हें अन्न -जल का अंतराय किया, इसके कारण बहुत अंतरायकर्म बंध चूका जो अब उदय में आया है।
ढंढणमुनि स्तब्ध रह गए । भगवंत के पास तत्क्षण अभिग्रह किया कि “मेरी स्वयं की लब्धि से भिक्षा मिले तो ही वापरनी।” लगातार छ: महीनों तक चुऊविहार उपवास किये । इस दरम्यान उन्हें भिक्षा नही मिली वह न ही मिली।
-संदर्भ ग्रंथ:त्रिषष्टि. चरित्र -८पर्व