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प्रियंकर चक्रवर्ती के पूर्वजन्म

प्रियंकर नामक एक चक्रवर्ती हुए । उसे खुद के हज़ारों मंत्रीओ में से एक मंत्री के साथ अति प्रेम था । मंत्री को भी खुद के राजा के प्रति बहुत प्रेम था । उनका प्रेम देखकर लोगो को ही नही उन दोनों को भी कभी बहुत आश्चर्य होता था ।

एक बार किसी तीर्थंकर परमात्मा का वहाँ आगमन हुआ । चक्रवर्ती ने प्रभु का सामैया किया तथा प्रवचन में मंत्रि के प्रति खुद के अतिप्रेम का कारण पूछा ।उसका कारण बीते हुए आठ – आठ भवो से तुम्हारे बिच में रहा हुआ प्रेम है । प्रभु ने फ़रमाया तथा उनके पिछले जन्मों की कथा शुरू की :
पहला भव : वनशीला नाम का विशाल जंगल था । उसके मध्यभाग में विद्याधरों तथा देवताओं का यहाँ कायमी आगमन रहता था । वे बहुत उमंग के साथ प्रभुपूजा करते ।

मंदिर के सामने ही आम का एक घना वृक्ष था । उसके ऊपर एक पोपट तथा उसकी मैना ने बसेरा किया । विद्याधरों द्वारा होने वाली उत्तम कक्षा की भक्ति को देखकर ये मैना पोपट झूम उठते तथा सोचते की इन दोनों के भाव को धन्य है कि ऐसी भक्ति क्र सकते है हम कैसे पापी है कि प्रभु सामने बैठे है फिर भी कुछ नही कर सकते ।

उनका मन प्रभु के प्रति आदर से भीग गया ।

अब, भक्ति किये बिना रह सके वैसा नही था । मैंना तथा पोपट नजदीक के वन में पहुंचे ।तजि उगी हुई आम व्रक्ष की मणजरी ले आये तथा मंदिर में प्रवेश किया । जिनबिम्ब के मस्तक को चांच स्पर्श न करे इस तरह से आम्रमंजरी स्थापित की ।

उनकी समझ तथा शक्ति के अनुसार उनका यह भक्ति के लिए प्रयत्न था । इस समय उनमे ऐसा उत्कृष्ट शुभ भाव जागा की वही उन्हें सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो गयी ।

दूसरा भव : पोपट मैना मर गए । पोपट की आत्मा पृथ्वी तिलक नगर में जितशत्रु राजा का पुत्र हुआ । उसकी गर्भनाल काटने के लिए जंहा खड्डा खोदने में आया वँहा से रत्नों की निधि प्राप्त हुई ।दूसरी बात की, वह गर्भ में था तब माता ने सपने में कुंडल देखे थे । इस तरह , इन दोनों घटनाओ को देखकर उसका निधिकुण्डल नाम रखने में आया ।

मैना की आत्मा कीसी नगर में राजकुमारी के रूप में पैदा हुई ।पुरदंरयशाउसका नाम। इस भव में निधिकुण्डल तथा पुरंदरयशा लग्नग्रँथि से जुड़े ।

दोनों ने ढलती उम्र में संयम स्वीकारा । समाधिपूर्वक म्रत्यु को प्राप्त हुए ।

तीसरा भव : तीसरे भव में वे दोनों पहले देवलोक में मित्र के रूप में उत्पन्न हुए ।

चौथा भव : चौथे भव में पोपट की आत्मा ललितांग नामक बहुत बलवान काया धारण करने वाला राजकुमार बना। वह मैना यंहा कहि उमदंति नामक राजपुत्री बनी । पहले के ऋणानुबंध के कारण दोनों इस भव में भी परस्पर खींचे आये ।

उमदंति का स्वयंवर मंडप जब रचाया गया तब दूसरे बहुत से पात्र राजा हाजिर थे तो भी उसने ललितांग के गले में ही वरमाला पहनाई । वापिस पति पत्नी के सम्बन्ध से बंध गये । पिछले जन्म के प्रेम का अनुबंध बहुत बलवान होता है ।

भोग – विलास में जवानी कहाँ ख़त्म हुई यह उन दोनों को मालूम नही पड़ा । एक बार तीर्थंकर भगवान का व्याख्यान सुनकर दोनों को प्रतिबोध हुआ । प्रभु के पास दीक्षा स्वीकारी ।

पाँचवा तथा छट्ठा भव : ललितांग राजश्री ने निर्दोष संयम पाला ।म्रत्यु पाकर ईशान देवलोक में उत्पन्न हुए । उमदंति भी मर्यादा भरा साध्वी जीवन जिकर ईशान देवलोक में उत्पन्न हुई वहाँ भी दोनों के बीच में मित्रता हुई ।

ललितांग देव मरकर देवसर नामक विद्याधर बना । उमदन्तिदेव उसी वैताढय पर्वत के ऊपर किसी विद्याधर की चंद्रकांता नामक पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई । यंहा भी देवसर तथा चंद्रकांता पति पत्नी के सम्बन्ध से जुड़े । विद्याधर साम्राज्य का चिरकाल तक नेतृत्व करके अंत में देवसेन ने प्रिया के साथ दीक्षा ली । उत्तम संयम पाला ।

सातवाँ भव : देवसेन राजश्री म्रत्यु पाकर पांचवे देवलोक में इंद्र ब्रहोद्र के रूप में पैदा हुए । चंद्रकांता रानी भी वहाँ ही रिद्धिमान देवता के रूप में पैदा हुई और इंद्र का विश्वास सम्पादित करने में उसे सफलता मिली ।

प्रेम का गोंद उन्हें हर जगह परस्पर बाँध देता ।

आठवा भव : ब्रहोंद्र म्रत्यु पाकर यंहा प्रियंकर नामक चक्रवर्ती बने तथा उनका विश्वासु देव यंहा मंत्री बनकर वापिस उनके पास आ गया ।

प्रभु के मुख से खुद का पिछला जन्म सुनकर प्रियंकर चक्रवर्ती की मोक्षाभिलाषा हिलोरा लेने लगी । उसने सर्व संग का त्याग किया । प्रभु के करकमलों द्वारा रजोहरण प्राप्त किया । उस मंत्री ने भी चक्रवर्ती के साथ ही दीक्षा ली ।

दोनों मुनि उत्तम अध्ययन करके गितार्थ बने तथा अनेक जीवो का योग क्षेम करने में सक्षम बन सके । जीवन के अंत में केवलज्ञान प्राप्त कर दोनों मुनि मोक्ष सम्पती के मालिक बने ।

संदर्भ : पुष्पमाला प्रकरण- सटीक ।

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