यदि तुम्हारी पुत्री योग्य वर को ही वरना चाहती है तो वह संयम रूपी वर के साथ पाणीग्रहण करें, जो देवों को भी दुर्लभ है और जिसके आगे सभी सद्गुण किंकर सामान है। रूप और लक्ष्मी भी जिसकी दासी है…. सभी क्रियाएं भी जिसके आगे तुच्छ है। जिसमें किसी प्रकार का दूषण नहीं है…… और जिसकी भक्ति से मोक्ष भी सुलभता से प्राप्त हो सकता है।
इस संसार में जीवन के साथ मृत्यु का भय जुड़ा हुआ है- योवन के साथ वृद्धावस्था का भय लगा हुआ है। देह के सौंदर्य के साथ रोग का भय जुड़ा हुआ है। अंजलि मे रहा जल जिस प्रकार प्रतिक्षण कम होता जाता है. . . . . . . उसी प्रकार अपना आयुष्य प्रतिक्षण नष्ट होता जाता है।
वज्रस्वामी के वैराग्य सभर उपदेशो को सुनकर रुक्मणी का मोह रूपी ज्वर शांत हो गया और लग्न के लिए आई हुई रुक्मिणी ने भागवती दीक्षा स्वीकार कर ली।
वज्रस्वामी की वाणी सुनकर अनेक भव्यआत्माएं भी जिनधर्म के प्रति आदर वाली बनी।
वज्रस्वामी ने आचारंग सूत्र के महापरीज्ञा अध्ययन में से आकाशगामिनी विद्या का उद्धार किया। ………….. परंतु भविष्य में सभी प्राणी अल्प सत्त्ववाले होंगे, यह जानकर उन्होंने वह विद्या किसी साधु को प्रदान नहीं की।
एक बार वज्रस्वामी विहार करते हुए उत्तर दिशा की ओर आगे बढ़े। वहां पर भयंकर अकाल पड़ा हुआ था। भयंकर दुष्काल के कारण संघ की स्थिति अत्यंत ही दयनीय थी।
संघ ने वज्रस्वामी को विनती करते हुए कहा, दुष्काल के कारण हमारी स्थिति अत्यंत ही खराब है। दुष्काल के साम्राज्य में पुनः पुनः भोजन करने पर भी तृप्ति नहीं होती है। भिक्षुओ के भय से श्रेष्ठिजन भी अपना द्वार नहीं खोलते हैं। क्रय-विक्रय का व्यवहार भी दुर्लभ हो गया है। विहार करके आये हुए साधुओं के लिए भी शुद्व अन्न की प्राप्ति दुर्लभ हो गई है। इस संघ का उद्धार करने में आप ही समर्थ हो।
संघ की इस दयनीय स्थिति का वर्णन सुनकर वज्रस्वामी ने सोचा सामर्थ्य होने पर भी यदि संघ का रक्षण न किया जाए तो वह व्यक्ति दुर्गतिगामि बनता है; यह संघ तो तीर्थंकरों को भी पूज्य है।