वह युग था परमार्थ का; छोटे-छोटे निमित्तों को पाकर अथवा जिनवाणी का अमृत पान करने वाले नव युवा की भौतिक सुखों को तिलांजलि देकर चारित्र धर्म को स्वीकार करने के लिए कटिबद्ध हो जाते थे।
सुनंदा सुखपूर्वक अपना गर्भ वहन करने लगी। गर्भस्थ शिशु को किसी प्रकार की पीड़ा न पहूँचे . . . उसका वह पूरा -पूरा ध्यान रखने लगी । समय व्यतीत हुआ . . . और एक दिन सुनंदा ने अत्यंत ही तेजस्वी पुत्र-रत्न को जन्म दिया। सुनंदा के आनंद का पार न रहा । सुनंदा की सखियों ने आकर उसे पुत्र- जन्म की बधाई दी।
खुशहाली के माहौल में किसी सखी में बात करते हुए कहा, अरे! इस बच्चे के पिता ने दीक्षा नहीं ली होती तो यह पुत्र- जन्मोत्सव और भी अच्छा होता।
नवजात शिशु के कान में यह शब्द गिरे और इन शब्दों ने उसके मन पर जादुई असर किया। इन शब्दों के श्रवण के साथ ही उसकी अन्तश्र्चेतना जागृत हो उठी।
पूर्व के देव भव में गणधर गौतमस्वामी के मुखारविंद से पुण्डरीक-कंडरीक अध्ययन के माध्यम से जिस मोक्ष मार्ग का श्रवण किया था. . . उनके संस्कारों के फलस्वरुप नवजात शिशु के हृदय में वैराग्य भाव का बीजारोपण हो गया और उसके परिणाम स्वरुप वह चरित्र धर्म अंगीकार करने के लिए समुत्सुक बन गया। वह बालक मन ही मन सोचने लगा,अहो! मेरा परम सौभाग्य है कि मेरे पिता ने भागवती दीक्षा स्वीकार की है। संयम के बिना इस संसार से आत्मा का निस्तार नहीं है . . . अतः मुझे भी यह संयम अवश्य स्वीकार करना चाहियें।
. . . परंतु मैं अपनी मां की इकलौती संतान होने के कारण वह मुझे अनुमति कैसे देगी?
वह छोटा सा बालक चरित्र धर्म की स्वीकृति के लिए अपनी माँ की अनुमति पाने का उपाय सोचने लगा ।आखिर सोचते-सोचते उसे एक उपाय हाथ लग गया।
माँ को मुझसे कंटाला आ जाए तो वह मुझे दीक्षा के लिए अनुमति प्रदान कर सकेगी- इस प्रकार विचार कर उस नवजात शिशु ने माँ को कंटाला पैदा करने के लिए निष्कारण ही जोर से रोना चालू कर दिया। नवजात शिशु के रुदन को जानकर माँ ने उस चुप करने के लिए अनेक उपाय किए. . . परंतु यह कोई वेदना-जन्य रुदन नहीं था. . . यहां तो रोने का मात्र बहाना ही था।