स्थूलभद्र की पुनः-पुनः प्रशंसा को सहन नहीं कर पाने के कारण उस रथिक ने अपनी कलाओं के प्रदर्शन का निश्चय किया। वह रथिक उस कोशा को गृह- उद्यान में ले गया। और वहां आपनी शय्या ( प्लयंक) पर बैठे- बैठे ही कोशा के मनोरंजन के लिए उसने अपनी कलाओं का प्रदर्शन चालू कर दिया। उसने एक बाण छोड़कर आम्र के गुच्छे ( लूंब) को वींध लिया। उसके बाद अर्ध चंद्राकर बाण से उस लूंब का छेदकर मूल सहित उस लूंब को लेकर उस वेश्या के हाथ में दे दिया और बोला, `देखी मेरी कला!’
रथिक की इस कला को देखकर उसके अभिमान को तोड़ने के लिए कोशा वेश्या ने सरसों के ढेर के बीच सूई रखकर उस पर पुष्प रखा और उस पर उसने नृत्य करना प्रारंभ किया। इस नृत्य करने पर भी सूई पुष्प तथा सरसों का एक दाना भी नहीं हिल पाया ।
वेश्या की इस कला से संतुष्ट होकर रथिक ने कहा, `बोल, मैं तुझे क्या दूँ?’
कोशा ने कहा , `मैंने जो कुछ किया, यह कोई विशिष्ट कला नहीं है। पूर्वाभ्यास से यह सब कुछ संभव है।’
मछलियाँ जल में तैरती है या पक्षी आकाश में उड़ते है, यह सब प्रकृति सिद्ध है , इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है।
लूंब को तोड़ना या पुष्प पर मेरा नृत्य करना कोई दुष्कर कार्य नहीं है; वह तो अभ्यास से संभव है; परन्तु भोग से ही जिसका उज्ज्वल शरीर है और जो भोग सुखों के बीच ही हुआ है, ऐसे स्थूलभद्र ने जो दुष्कर कार्य किया है; वह न तो जन्मसिद्ध है और न ही अभ्यास से सिद्ध है – यही सबसे बड़ा आश्चर्य है।
जिस स्थूलभद्र ने 12-12 वर्ष तक भोग सुखों का अनुभव किया, जिस चित्रशाला में रहकर षडरस का भोजन किया, उसी स्थूलभद्र ने इसी चित्रशाला में लेश भी व्रत का खंडन नहीं किया; यही सबसे अधिक आश्चर्यकारी है। किसी कवि ने कहा है:-
( आम्र की लूंब का तोडना दुष्कर नहीं है और न ही सरसों के ढेर पर नृत्य करना दुष्कर है, परन्तु स्त्री के बीच रहकर स्थूलभद्र ने जो कुछ किया है;
वह सबसे अधिक दुष्कर कार्य है ।)
रथिक ने कहा , `वह स्थूलभद्र कौन है , जिसकी तुम इतनी अधिक प्रशंसा करती हो?’
वेश्या ने कहा ,`वे शटकाल मंत्री के पुत्र स्थूलभद्र है।’
रथिक ने कहा ,`यदि ऐसा ही है तो मैं उनका दासानुदास हूँ।’
कोशा के मुख से स्थूलभद्र के स्वरूप का वर्णन सुनकर भव से विरक्त बने उस रथिक ने राजा की अनुज्ञा प्राप्त कर गुरुदेव के पास जाकर भागवती – प्रव्रज्या अंगीकार कर ली।