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कलिकुंड तीर्थ की स्थापना का बीज बननेवाले पार्श्वभक्त हाथी का पूर्व जन्म:

चंपानगरी के नजदीक में कादंबरी नाम का घोर जंगल था। इस जंगल में कली नामक पर्वत था तथा पर्वत की तलहटी में कुंड नामक सरोवर था।

एक बार पार्श्वप्रभु कांदबरी जंगल में पधारे। कलीपर्वत के नीचे कुंड सरोवर के पास काऊसग्ग करते रहे। प्रभू का छाद्धस्थकाल चल रहा था ।

इसी जंगल में महीधर नामक युठाधिपति हाथी था । घूमता घूमता यह हाथी प्रभु के सामने आया । प्रभु के दर्शन होते ही उसे रोमांच प्रकटा । जातिस्मरण ज्ञान हुआ । वह ऐसे ऐसे देखने लगा की पिछले जन्म में मैं हेमधर नामक मनुष्य था । मात्र दो हाथ की मेरी काया।महाविदेहक्षेत्र की धरती पर पांच सौ धनुष्य की काया वाला मनुष्य हमेशा घूमते रहते हैं । यहाँ दो हाथ की काया की क्या गिनती ? मैं एकदम वामन ।

लोगो के लिए में मजाक का पात्र बन गया ।सब ठिंगुजी कहकर मुझे चिढ़ाते । बच्चे भी मेरी मर्यादा नही रखते थे ।जैसे ही घर के बाहर निकलूँ वँहा जवान लड़के मुझे पकड़कर आकाश में ऊँचे उछालते तथा फिर झेल लेते थे । उस समय मुझे बहुत कंपकंपी छूटती । डर लगता। मौत का भय सताता । भय में उछाले जाने के समय भारी लगती । मैं लचार था । कितने ही वर्षो तक मैंने यह सहन किया ।

अंत में दुःख से लाचार होकर अपघात का निर्णय किया ।घोर जंगल में पहुँचकर एक वृक्ष की मजबुत शाखा पर गले फांसी बांधकर लटक गया।

सावधान ! मेरा भाग्य जीवित था । वह मुझे इस तरह रौद्रध्यान से मरकर नरक में ले जाने को तैयार न था ।

योगानुयोग कोई श्रावक वँहा आ गया । दया से प्रेरित होकर उसने मेरे गले का फांसा काट दिया । मुझे बचा लिया । शीतल जल छांटा। अपनी गोद में मेरा सिर लेकर प्रेम दिया ।

मैं बेहोशी में से बाहर आया तब उसने मुझे पाप् तथा पुण्य की दर्शन शास्त्र समझाई। दुःख से परेशान होकर मरना, यह दुःख दूर करने का मार्ग नही । दुःख को सहन करना सीखना यह दुःख दूर करने का मार्ग है मुझे उसकी बात पसन्द आई। वह मुझे जैनाचार्य के पास ले गया। उनका उपदेश सुनकर मेने बहुत प्रतिबोध पाया। मैंने उनके पास समयक्त्व स्वीकारा उसके बाद बहुत तप किये। अंत समय अनशन भी किया। मृत्यु का समय अब एकदम नजदीक था तब में भटक गया। लोगो ने मेरी ठिंगुजी – ठिंगुजी कहकर की हुई मश्करी की याद मेरे हदय में फिर सताने लगी।
मै ऊँचा चढ़कर वापिस नीचे पड़ा। निर्णय कर लिया की इस भव में मैने जो तप किया है , उसके फलस्वरूप आने वाले भव में मुझे सबसे ऊंची काया मिले ।

बस ! गिरना तो बहुत आसान है। मृत्यु पाकर मैं यहाँ हाथी के रूप में जन्मा हूँ।
हाथी यह सब देखता जा रहा है तथा उसकी आँखों में से आंसू के बड़े बड़े बूंद गिरते जाते हैं। उसने सोचा की , अभी भी थोड़ा भाग्य जीवित होगा जिससे आज इस तीर्थंकर का दर्शन हुआ है। प्रभु की उत्तम भक्ति कर लूँ तो मेरी भव यात्रा सुधर जाएगी। अत्यन्त शांत परिणाम पर पहुंचे इस हाथी ने सरोवर में से सुगन्धित कमल इकठ्ठे किये तथा उन्हें प्रभु के चरणो में रखकर पुष्प पूजा की ।

प्रभात का समय हुआ इसलिए प्रभु अन्यत्र विहार कर गए । अब यह हाथी संवेग से वासित था इसलिए उसका मन कही भी तृप्त नही होता। उसने तुरंत अनशन स्वीकारा। समाधिपूर्वक मृत्यु पाया तथा महान ऋद्धिवाला व्यन्तर बना ।

हाथी द्वारा प्रभू की पूजा का वृतान्त सुनकर चम्पानगरी का स्वामी राजा यंहा आया परंतु न तो प्रभू के दर्शन हुए न ही हाथी द्रष्टिगोचर हुआ । इससे वह बहुत उदास हो गया । इस समय धरणेन्द्र ने नो हाथ ऊँची पार्श्वनाथ प्रभु की काऊसग्ग मुद्रावाली प्रतिमा प्रकट की। राजा नाच उठा । राजा ने वँहा भव्य मंदिर बँधवाया । जिसमे यह धरणेन्द्र निर्मित प्रतिमा को स्थापन किया गया । प्रभु के सयंम जीवन की यह रोमांचक घटना चिरंजीवी बनी रहे इसलिए राजा ने प्रतिमा को ‘ ‘कालिकुंड पार्श्वनाथ ‘ के नाम से घोषित किया ।

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