गुणसेन-वसंतासेना के बीच अगाध स्नेह तो था ही, परंतु विशेष रूप से समझदारी एवं सामंजस्य का सेतु बना हुआ था। इसलिए कभी भी गैरसमज होने की संभावना ही नहीं थी। कभी मतभेद हो भी जाता, तो तुरंत ही सच्ची समझदारी से मतभेद को वे मिटा देते, इससे उनका पारिवारिक जीवन शांतिमय और प्रेमभरा हुआ था ।
एक दिन वसंतसेना ने प्रेमभरे शब्दों में गुणसेन से कहा :
‘स्वामिन्, मुझे याद नहीं आता….. हम अपनी दूसरी राजधानी वसंतपुर में कभी गये हों….! उस सुहावने नगर की बातें मुझे कई बार उस नगर की ओर खींचती है, आकर्षित करती है। उस नगर के मनोरम उधान…. वन….. सरोवर सब मन को ललचाता है….. वहां जाने के लिए ! यदि इन दिनों क्षिति –प्रतिष्ठित नगर में रहना जरूरी न हो तो हम परिवार के साथ वसंतपुर जाएं, और कुछ समय वहां रहें ।‘
‘सेना…., तूने मेरे मन की बात कही….. सचमुच ! मेरा मन भी कुछ दिनों से स्थान-परिवर्तन करने चाह रहा था। राज्य में सर्वत्र शांति है….. सुख है….. और निर्भयता है। प्रजा आनंद में है। हम अवश्य ही वसंतपुर जाएंगे। सारी जिम्मेदारी मंत्री-मंडल को सौंप देंगे ।‘
‘आपकी बात योग्य है…… उचित है ।‘ वसंतसेना ने जाने की तैयारीयां शुरू कर दी। राजा गुणसेन ने मंत्री-मंडल को बुलाकर वसंतपुर जाने की बात कही । मंत्रीमंडल ने सहमति दी ।
‘महाराजा, आप निश्चिंत होकर वसंतपुर पधारिये । यहां के समाचार आपको नियमित मिलते रहेंगे । आपके वहां पधारने से, उस इलाके की प्रजा को बड़ा आनंद होगा। और राज्यव्यवस्था भी मजबूत होगी ।‘
महामंत्री ने कहा : ‘महाराजा, कुछ सैनिक एवं कुछ परिचारकों को लेकर मैं पहले ही वसंतपुर पहॅुच जाता हूं । वहां पर आपके निवास बगैरह की समुचित व्यवस्था जमा देता हूं। आप अच्छे दिन में यहां से प्रयाण कर के वहां पधारिये। मैं आपकी सेवा में उपस्थित रहूंगा ।
पूरे क्षितिप्रतिष्ठित नगर में हवा की तरह बात फैल गई । ‘महाराजा सपरिवार वसंतपुर पधार रहें हैं। और कुछ बरस वहीं पर रूकेंगे।’ समाचार मिलते ही…… स्नेहीजन और महाजन मिलने के लिये राजमहल में आने लगे। शीघ्र वापस लौटने के लिए बिनती करने लगे। राजा का गुणगान करने लगे। राजा गुणसेन ने सभी का उचित आदर-सत्कार किया।
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