कुलपति के एक एक शब्द ने अग्निशर्मा के संतप्त दिल पर चंदन का मानो विलेपन किया। अग्निशर्मा ने अपूर्व शांति और प्रसन्नता का अनुभव किया । उसने जीवन मे कभी भी ऐसी शांति और प्रसन्नता का अनुभव नही किया था ! उसने कुलपति के चरणों मे प्रणाम करके कहा :
‘महात्मन ! आपने जो कहा वह सत्य ही है । पूर्वजन्म के मेरे पापकर्म ही मुझे दुःखी कर रहे थे । राजकुमार का कोई दोष नही है । मुझे उसके प्रति तनिक भी गुस्सा नही है… द्वेष नही है । मेरे ज्ञानी पिताजी भी मुझे अक्सर यही बात कहते थे । मैने गत जन्म में अनेक जीवों को घोर दुःख दिये होंगे, इसी के परिणाम स्वरूप इस जन्म में मुझे दुःख भुगतने पड़े !’
‘वत्स, पर अब तो तू तपोवन में आ गया है । यहां पर वैसा कोई दुःख तुझे परेशान नही करेगा !’
‘भगवंत, आपकी मेरे जैसे तुच्छ, बदसूरत और बेढंगे जीव पर परम अनुकंपा होगी और यदि मुझे इस आश्रम में स्थान प्राप्त होगा तो जनम जनम तक मै आपका उपकार नही भूलूंगा। और यदि मुझे आप आपके तापस धर्म के लिए योग्य समझे, पात्र जाने तो मुझे तापस-व्रत देकर कृतार्थ करे ।’
अग्निशर्मा की आंखों में खुशी के आंसू छलक आये । कुलपति में प्रेमभरे शब्दो मे कहा :
‘वत्स, तेरे चित्त में वैराग्य पैदा हुआ है… अतः तू तापस बनने के लिए योग्य है। तापस वैरागी-विरक्त होना चाहिए। उसमे दुनिया के प्रशस्त विषयो पर न तो राग चाहिए न ही जीवो के प्रति द्वेष की भावना होना चाहिए। तू वैसी विरक्त आत्मा है, इसलिए तापस होने के लिए सर्वथा योग्य है ।’
‘परंतु, गुरूदेव…. मेरा यह बदसूरत शरीर….?’
‘शरीर चाहे जैसा भी हो ! ज्ञानीपुरुष शरीर नही देखते है। वे आत्मा को देखते है। तेरे बदसूरत शरीर मे अनंत सौन्दर्य के पुंज सी एक नित्य आत्मा रही हुई है । शाश्वत आत्मा रही हुई है । मै तेरी उस आत्मा को देखता हूं…. तेरी आत्मा के साथ आत्मीय का अनुभव करता हूं इसलिए ही तुझे योग्य व उपयुक्त समय पर संन्यास दीक्षा दूँगा ।’
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