इधर गुरुदेव ने महाव्रतों का आरोपण कर के, उन दोनों नवदीक्षितो को लक्ष्य कर के कहा:
पुण्यशाली, आज तुम भवसागर को तैरने के लिये संयम की नैया में बैठ गये हो ।
तुम्हे क्रोध-मान-माया ओर लोभ पर विजय प्राप्त करना है ।
तुम्हे तुम्हारे मन-वचन-काया को शुद्ध रखना है । इसके लिये पाँच इंद्रियों को वश में रखनी है ।
केश के लुंचन के साथ विषय-कषाय का लुंचन भी करना है !
भागयशाली, इर्य्यासमिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान-भड़निक्षेपन समिति, पारिष्ठापनिका समिति का पालन करना।
मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति का पालन करना।
पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय की रक्षा करना।
दिन रात के पाँच प्रहर तो तुम्हे श्रुतज्ञान की आराधना उपासना करनी है ।
42 दोष टालकर भिक्षा लानी है और पाँच दोष त्याग कर कर आहार करना है।
असत्य ना बोला जाये इसकी सतर्कता रखना।
तुम्हारी वाणी मधुर, हितकारी और परिमित रखना।
किसी भी वस्तु को उसके मालिक से पूछे बगैर लेना मत।
मन वचन काया से बह्मचर्य का नैष्ठिक पालन करना। नों प्रकार के परिग्रह का सदन्तर त्याग करना ।
संयमस्वरूप रथ के दो चक्र है ज्ञान और क्रिया । उस रथ से तुम आरूढ़ हुए हो ।
देखना… ख़याल करना, रसऋद्धि-ज्ञान की लोलुपता सताये नही ।
देशकथा, राजकथा, भोजनकथा और स्त्रीकथा का त्याग करना ।
वैसी आत्मस्थिति प्राप्त करना कि शत्रुमित्र–समव्रत्ति हो जाओ !
इसके लिये क्षमा, नम्रता, सरलता, निर्लोभता इत्यादि दस प्रकार से यतिधर्म का पालन करना । दस प्रकार की समाचारी का यथोचित पालन करना ।
रोजाना अनित्यादी बारह भावनाओं से भावित बनना । गुरुविनय करना ।
बाह्य-आभ्यंतर बारह प्रकार की तपश्चर्या करना ।
ज्ञान-ध्यान में लीन बन कर कर्मशत्रु को खत्म करना।
देशना पूर्ण हुई ।
पूज्य गुरुदेव ने सुरसुन्दरी को साध्वी सुव्रता को सौंप कर श्रमणीव्रन्द में शामिल कर दी। अमरकुमार को साथ लेकर उन्होंने चंपानगरी से विहार किया ।
रत्नजटी ने, राजा गुणपाल ने, राजा रिपुमर्दन ने और समग्र राजपरिवार ने अमर मुनिराज को भावपूर्वक वंदना की और नगर में वापस लौटे ।
सभी उदास थे…. सभी के दिल टूटे हुए थे । अमरकुमार-सुरसुन्दरी बिना का संसार सुना वीरान सा हो गया था ! महल जैसे श्मशान बन चुके थे !