वसंत पंचमी !
दीक्षा का शुभ मुहूर्त का दिन !
चंपानगरी में दिव्य श्रृंगार सजे थे…. नगरी के राज मार्ग पर कीमती मोतियों के तोरण लटकाये गये थे । सुगंध भरपूर पानी का छिटकाव किया गया था । हजारों रथ, हाथी और घोड़ो को सजाये सवारे गये थे । विद्याधरों के वाजिन्त्रो ने वातावरण को प्रसन्न्ता से भर दिया था
अमरकुमार और सुरसुन्दरी दीक्षा ग्रहण करने के लिये हवेली से निकले। गुणमंजरी बेहोश होकर जमीन पर ढेर हो गई । रत्नजटी की रानियों ने उसकी सम्भाल लिया । एक रथ में उसके साथ ही चारों रानियां बैठ गई।
अमरकुमार और सुरसुन्दरी ने ढेर सारी संपत्ति का दान दिया । रत्नजटी ने राजा रिपुमर्दन ने और राजा गुणपाल ने भी विपुल संपत्ति का दान दिया ।
शोभायात्रा नगर के बाहरी उपवन में पहुँची । जहाँ पर गुरुदेव ज्ञानवर मुनि विराजे हुए थे । दंपति रथ में से उतर गये । अन्य सभी भी रथ में से नीचे उतरे । वाजिन्त्रो का नाद बंद हो गया । दोनों ने आकर गुरुदेव प्रदक्षिणा देकर वंदना की । ईशान कोण की तरफ जाकर, शरीर पर के अलंकार उतारे… और रत्नजटी की गोद में दिये । इसने स्वयं अपने केशों को लुंचन किया । गुरुदेव ने दोनों को साधु वेश दिया… और महाव्रतों का आरोपण किया ।
दोनों को साधु-साध्वी के वेश में देखकर गुणमंजरी दहाड़ मार कर रो पड़ी । वह बेहोश होकर गिर पड़ी । रत्नजटी की रानियां उसको उठाकर दूर ले गई….। उपचार कर के उसको स्वस्थ किया ।
‘बहन ! हिम्मत मत हारो । स्वस्थ बनो…। अभी तो तुम्हे उन दोनों को भीतरी अन्तःकरण की शुभ कामनाए देनी है !’
‘नही… नही मै नही देख सकती उन्हें इन कपड़ो में… उनके केश बिना का मस्तक नही… मै नही देख पाऊंगी… मेरे प्राण निकल जायेंगे…. मुझे तुम दूर ले चलो….।
गुणमंजरी को रथ में बिठाकर चारों रानियां उसे हवेली में ले आई। धीरे धीरे आश्वासन देकर उसे स्वस्थ किया।
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