‘महाराजा, मै चंपानगरी से श्रेष्ठि धनावह का संदेश लेकर आया हूं ।’
‘कहो, श्रेष्ठि धनावह और अमरकुमार कुशल तो है ना ?’
‘जी हां, वे सब कुशल है, और आपको कहलाया है अमरकुमार और उनकी धर्मपत्नी सुरसुन्दरी, इस संसार का परित्याग करके चारित्रधर्म अंगीकार करने के लिये तत्पर बने हैं। दीक्षामहोत्सव में आपको परिवार के साथ पधारने की विनती है ।’
चंपा से आये हुए दूत ने बेनातट नगर की राजसभा में राजा गुणपाल के समक्ष निवेदन किया । राजा गुणपाल संदेश सुनकर पलभर तो स्तब्ध रह गये…. वे बोल उठे:
‘तो फिर गुणमंजरी का क्या ?’
‘महाराजा, जहां तक मेरी जानकारी है—- उन्होंने भी अनुमति प्रदान की है ।’
राजसभा का विसर्जन किया गया । राजा गुणपाल सीधे ही अन्तःपुर में गये । महारानी को समाचार दिये, और चंपा जाने की तैयारी करने की सूचना भी दे दी । रानी गुणमाला का ह्रदय कांप उठा समाचार सुनकर ! महाराजा के मन में भी तरह तरह के विकल्पों के वर्तुल बनने -बिगड़ने लगे। गुणमंजरी के विचार उनके दिल को उद्विग्न किये जा रहे थे ।
प्रयाण की तैयारियां हो गयी…। राजा गुणपाल ने परिवार के साथ अनेक सैनिक वगैरह को लेकर समुद्र के रास्ते चंपानगरी की ओर प्रयाण आरंभ कर दिया।
‘बेटी, तेरे बिना हमारा जीवन शून्य हो जायेगा !’
‘पिताजी आपकी दूसरी बेटी भी है ना ? गुणमंजरी क्या आपकी बेटी नही है ? आप उसे सुरसुन्दरी ही समझना। गुणमंजरी में मेरा ही दर्शन करना ।’
महाराजा रिपुमर्दन और रानी रातिसुन्दरी दोनों रथ में बैठकर धनावह श्रेष्ठि की हवेली पर आये थे । अमरकुमार और सुरसुन्दरी की दीक्षा लेने की बात जानकर दोनों अत्यंत व्यथित हो गये थे । दोनों के चेहरे उदासी में डूब गये थे । रतिसुन्दरी तो बेटी को अपनी गोद में लेकर फफक फफक कर रो पड़ी ।
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