एक मेरे मन की बात कहूं तुम से?
‘कहो माँ !’ अमरकुमार गदगद हो उठा । ‘मै और गुणमंजरी दोनों साथ साथ चारित्र जीवन अंगीकार करेंगे ।’
‘ओह, माँ….।’ कहती हुई गुणमंजरी धनवती से लिपट गई ।
‘बेटी, अपने साथ अमर के पिताजी भी चारित्र लेंगे ! कल रात में ही मेरी उनके साथ बातचीत हुई है । उन्होंने कहा मुझसे….’अमर और सुन्दरी यदि चारित्र ले फिर अपन तो संसार मे रह कैसे सकते है?’ पर मैने कहा उनसे की रहना तो पड़ेगा ही। अपन को गुणमंजरी और पौत्र के लिये भी संसार मे रहना पड़ेगा। पौत्र योग्य उम्र का हो जायेगा तब अपन चारित्र लेंगे मेरी बात उन्हें जँच भी गई ।’
अमरकुमार, सुरसुन्दरी और गुणमंजरी तीनों के ह्रदय धनवती पर फिदा हो उठे !
‘माँ…. अनंत अनंत पुण्य का उदय हो तो तेरे जैसी माँ मिले !’ ‘अमरकुमार का स्वर गदगद हो गया था ।
‘बेटा…अनंत पुण्य का उदय हो तब माँ को ऐसे उत्तम संतानों की प्राप्ति होती हैं । मुझे तो मेरे पुत्र से भी बढ़कर बहुएं मिली है। मेरे पुण्य की तो सीमा ही नही है !’
‘मां, आज ही गुरुदेव ने कहा था कि तुम्हे माता-पिता की अनुमति मिल जायेगी….।’
‘वे तो अन्तर्यामी गुरुदेव है बेटा….। ऐसे सद्गुरु भी अनंत अनंत जन्मों के पुण्य एकत्र हो तब जाकर मिलते है — और बेटी सुन्दरी तुझे एक शुभ समाचार दूँ ?’
‘कहो माँ ?’
‘साध्वीजी सुव्रता कल ही चंपानगरी पधारे है ।’
‘ओह, साध्वीजी सुव्रता ? मेरे परम हितकारी…. परम उपकारी, मुझे नवकार मंत्र देनेवाले… मुझे ज्ञान का प्रकाश देनेवाले…. उन गुरुजी के दर्शन करने के लिये मै अभी जाऊंगी…
माँ ।’
‘हा बेटी, अपन सब साथ ही चलेंगे। वे भी तुझे याद कर रहे थे ।’
‘मेरे पुण्य की अवधि नही है माँ….। सुरसुन्दरी की आंखे हर्षाश्रु बहाने लगी ।’
‘माँ… मै भी तुझे एक शुभ समाचार दूँ ?’
‘बोल बेटा ?’
‘विद्याधर राजा रत्नजटी, तेरी पुत्रवधु के धर्मबंधु और रक्षक–उन्हें भी दीक्षा— महोत्सव में पधारने का निमंत्रण आज दे दिया गया ! वे जरूर आयेंगे दीक्षा महोत्सव में !’
‘बेनातट नगर में मेरे माता-पिता को समाचार…?’
मंजरी बोली ।
आज ही… अभी दूत को रवाना करता हूं….! ! ‘