तू’ ऐसा मत मानना की तेरे प्रति हमें अरुचि या अभाव हो गया है ! तेरे प्रति जो प्रेम था… वह विशुद्ध बन गया है । प्रेम का विषय अब तेरी देह नहीं पर तेरी आत्मा बन गयी है। आत्मा का आत्मा के साथ प्रेम ! अदभुत होता है वह प्रेम ! देह अलग रहने पर भी वह प्रेम अखंड रहता है ! एक दिन ऐसा भी आयेगा की अपन तीनो की आत्माएं अभेद भाव से मिल जायेगी ! तीनो आत्मज्योति मुक्ति में समा जायेगी…! फिर कभी भी वियोग या विरह नही होगा…अनंत अनंत काल तक संयोग ही संयोग !
‘पुत्र की जिम्मेदारी तेरे पर ओढाकर मै मेरा स्वार्थ तो सिद्ध नही कर रहा हूं ना ?’ मुझे यह विचार आ गया…. अभी मैने मौन रूप में इसी चीज के बारे में सोचा….। तुझे अकेली छोड़कर… जिम्मेदारी तेरे पर रखकर तभी हम जा सकते है…. जब कि तू ‘प्रसन्न मन से हमें विदा दे !
तू ‘तेरी मानसिक और आत्मिक स्थिति का विचार कर के संसार त्याग की हमारी भावना का समर्थन कर ।
तू ‘ खुद भी संयम धर्म स्वीकारने के लिए तत्पर हुई है –यह जानकर मेरा आनंद तिगुणित बना है । हमारे पीछे तू जरूर आयेगी संयमराह पर ! पुत्र को भी दूध के साथ आत्मज्ञान के अमृत का पान करवाना। त्याग– वैराग्य के आदर्शों का पान करवाना ।’
अमरकुमार नही बोल रहा था… उसका ह्रदय बोल रहा था । गुणमंजरी मुग्ध बनकर सुनती जा रही थी। एक एक शब्द उसके दिल को स्पर्श कर रहा था ।
उसके चेहरे पर स्वस्थता उभरने लगी । उसकी आंखों में समता तैरने लगी। वह गहरी सोच में खो गई । खंड में मौन छा गया था ।
‘क्या पुत्र की जिम्मेदारी माताजी नही ले सकते ?’
‘अभी तक मैने माँ को बात की नही है… उनकी अनुमति भी नही ली है…. फिर भी यदि माताजी जिम्मेदारी ले ले तो तू’ हमारे साथ सयंम स्वीकार कर सकती है….!’
इतने में धनवती ने खंड में प्रवेश किया। तीनों जन सकपका कर खड़े हो गये । धनवती दोनों पुत्रवधुओं के हाथ पकड़कर बैठ गई ।
‘क्षमा करना तुम, मैने तुम्हारा वार्तालाप दरवाजे की ओट में खड़े खड़े सुना है । पौत्र को पलने में सुलाकर मै तुम्हारे पास ही आ रही थी, परंतु तुम्हारा वार्तालाप मुक्त मन से हो सके इसलिए भीतर नहीं आई ।’
‘तो माँ, हमे अनुमति दे… आशीर्वाद दे… हम संयमधर्म का स्वीकार कर कर्मो के बंधन तोड़ने का पुरुषार्थ करें ।’
अमरकुमार ने माँ के चरणों में सर रख दिया ।
धनवती की आंखे गीली हो आई । उसने अमरकुमार के मस्तक पर अपने दोनों हाथ रखते हुए कहा :
‘बेटा, चारित्र के बिना मुक्ति नही है… यह बात मै मानती हूं । त्याग का मार्ग ही सच्चे सुख का मार्ग है । ठीक है, तेरे पर राग है इसलिये मै तुझे मना करू….. पर विघ्नभूत तो नही बनूगी …! !’
‘तो माताजी, हम दोनों को भी इजाजत दे दीजिए….।’ दोनों पुत्रवधुए एक साथ बोल उठी । गुणमंजरी का हाथ पकड़कर धनवती ने कहा :
‘बेटी तेरे से अभी चारित्र नही लिया जा सकता ! बच्चे को तेरा ही दूध मिलना चाहिए…. और एक मेरे मन की बात कहूं तुम से ?’
आगे अगली पोस्ट मे…