महामुनि श्री ज्ञानवर ने आंखे बंद की । अवधिज्ञान के आलोक में सुरसुन्दरी का भूतकाल पर्याय देखें । अमरकुमार को अतीत में देखा । दोनो का रिश्ता देखा…. जाना… और आंखे खोलकर रहस्य पर से परदा उठाते हुए मुनि बोले :
‘राजन, संसार में परिभ्रमण करनेवाले जीव राग-द्वेष और मोह के अधीन बनकर पाप करते रहते है; पापकर्म बांधते है । बांधते वक्त ख़याल रहता है कि वे पापकर्म जब उदय में आते है तब जीवात्मा दुःखी दुःखी हो जाता है। सुरसुन्दरी ने गत जन्म में ऐसे ही पापकर्म बांधे थे । जिसके फलस्वरूप उसे दुःखो के दावानल से सुलगना पड़ा। लम्बी कहानी है । जन्म-जन्मांतर की यात्रा दीर्घ होती है। मै तुम्हारे सवाल को लक्ष्य करके सुरसुन्दरी का गत जन्म बता रहा हूं ।
सुदर्शन नाम का सुहावना नगर था। वहां पर
राजा सुरराज राज्य करता था। रेवती नाम की उसकी रानी थी । राजा रानी दोनों ही परस्पर गाढ़ प्यार था…षप्रीति थी…. एक दूजे के प्रति पूर्ण वफादार एवं समर्पित थे । देवलोक के इन्द्र-इंद्राणी से दिव्य सुख दोनों अनुभव कर रहे थे ।
एक दिन की बात है ।
राजा-रानी नोकर-चाकर और कुछ सैनिको को साथ लेकर एक सुन्दर वनखंड में क्रीड़ा करने गये । एक रमणीय उपवन के निकट पड़ाव भी डाल दिया ।
सैनिक लोग आसपास सुरक्षा के इरादे से तैनात हो गए । राजा-रानी घूमते हुए वन में कुछ दूर निकल गये।
एक घटादार पेड़ के नीचे एक महामुनि को उन्होंने धनास्थ दशा में देखा । मुनि युवान थे । उनके चेहरे पर तपश्चर्या का तेज झिलमिला रहा था । उनके शरीर पर के वस्त्र मलिन से थे । राजा सुरराज ने मुनि के चरणों में मस्तक झुकाया । अंजलि जोड़कर वंदना की और रानी रेवती से कहा :
‘प्रिये, धन्य है इन महामुनि को ! भर जवानी में महाव्रतों का पालन करनेवाले महामुनि को भावपूर्वक वंदना करो….। कितनी शांत-प्रशांत मुखमुद्रा है इनकी… एकाग्रचित होकर कैसा ध्यान कर रहे है , आज का अपना दिन सफल हो गया… इन महामुनि के दर्शन कर के !’
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