‘गुणमंजरी को आपके प्रति अगाध प्रेम है , आपके चरणों में पूर्णतया समर्पित वह महासती नारी है ।’
‘सही बात है तेरी , पर मेरे दिल की स्तिथि अलग है… मैं उसके बिना जी सकता हूं, ऐसा मैं महसूसता हूं… पर तेरे बिना जीना… किसी भी हालात में संभव नहीं… ऐसा मुझे लगता है । इसलिये यदि चारित्रधर्म को अंगीकार करना होगा तो अपन दोनों साथ साथ ही अंगीकार करेंगे
‘मेरे-आपके बिना गुणमंजरी का क्या होगा? उसका भी विचार अपन को करना चाहिए ना ?’
‘जब वैसा मौका आयेगा तब सोचना है ना ? देखेंगे।
‘आपकी बात सही है, पर ऐसा अवसर शायद निकट भविष्य में आ जाये , वैसा मेरा मन कहता है ।’
‘तो… गुणमंजरी को बुला लेंगे , उसे बात करेंगे , परन्तु तू अभी माता-पिता की वैसी कोई बात करना मत।’
‘आपकी आज्ञा शिरोधाय है ।’ सुरसुन्दरी ने मस्तक पर अंजलि रचाकर, सर झुकाकर अमरकुमार की आज्ञा का स्वीकार किया ।
रात का प्रथम प्रहर पूरा हो गया था । अमरकुमार श्रेष्ठि धनावह से मिलने के लिये उनके खंड से गया । सुरसुन्दरी की स्मृति में रत्नजटी और उसकी चार पत्नियां आ गई । नन्दीश्वर द्विप और महामुनि शंख उपस्थित हो गये । वह रोमांच से सिहर उठी ।
‘यदि हम चारित्र लेंगे , साधुधर्म अंगीकार करेंगे … तो रत्नजटी को और चारों रानियों को मैं यहां आने के लिये निमंत्रण दूंगी…। उनके उपकारों को मैं कैसे भुला सकती हूं ? कितना उत्तम वह परिवार है…? गुणों से समृद्ध । निःस्वार्थ प्रेम से छलछल भरा हुआ । मेरे उस धर्मभ्राता को संदेश पहुँचाने वाला कोई मिल जाये तो अभी ही उसे मेरी सुखशांति के समाचार भेज दूं । पर उस विद्याधरों की दुनिया में जानेवाला कौन मिलेगा ?’
सुरसुन्दरी को गुणमंजरी के विचार आये । राजा गुणपाल के शब्द उसके दिल में उभरने लगे : ‘बेटी, गुणमंजरी तेरी गोद में है ।’ और सुरसुन्दरी विह्रल हो उठी…’यदि गुणमंजरी प्रसन्नमन से चरित्र की अनुमति नहीं देगी तो ? उसकी उपेक्षा कर के तो मैं उसका त्याग कैसे कर सकती हूं ? और उसे मेरे पर प्यार भी तो कितना ज्यादा है ? वह किसी भी हालत में मुझे अनुमति देने वाली नहीं है । यदि वह खुद संतान के बंधन में न बंध गई होती तो हमारे साथ वह भी चारित्र की राह पर चल देती । परन्तु वह तो निकट समय में मां बननेवाली है ?
सुरसुन्दरी उलझन में फस गई । जैसे की चरित्र लेना ही है — वैसे भावप्रवाह में बहती रही । संसार के असीम सुखों के बीच रही हुई सुन्दरी का मन संयम के कष्टों को सहजरूप से स्वीकारने के लिए लालायित हो उठा था ।
विचारों से मुक्त होने के लिए उसने श्री नवकार मन्त्र का ध्यान किया । सम्पर्ण करते करते ही वह निद्राधीन हो गयी ।
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