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बिदाई की घड़ी आई । – भाग 3

सुरसुन्दरी ने पीछे से आकर मृदु-मधुरस्वर स्वर में पूछा  ।

अमरकुमार सुरसुन्दरी के सामने देखता ही रहा ।

‘कह दो ना । जो भी मन मे आया हो…. कह दो’ सुरसुन्दरी का स्वर  स्नेह से आप्लावित था ।

‘तू गुणमंजरी के साथ मेरी शादी करवा कर,  इस संसार का त्याग करने का विचार तो नही कर रही है ना  ?’ अमरकुमार की आंखे गीली हो उठी । उसका स्वर भी आर्द्र हुआ जा रहा था ।

‘नही… नही… ऐसी तो मुझे कल्पना भी नही आ रही है  ! !  अभी आपका मोह… आपका राग छूटा कहां है  ?  इतने इतने दुःख झेलने पर भी वैषयिक सुखों की इच्छा सम्पूर्ण विराम नहीं पाई । हां, कभीकभार वैराग्य के भाव उमड़ आते है मन के गगन में, पर वे भाव स्थिर नहीं रहते है ।’

‘यह निर्णय करते हुए तुझे डर नही लगा  ?’

‘डर  ? काहे का  ?’

‘गुणमंजरी के साथ शादी करके मै तुझे शायद भुला दूँ तो   ?’

‘ओफ्फोह…’ सुरसुन्दरी बरबस हँस पड़ी । ‘यह तो  आप तब भी कर चुके हो जब गुणमंजरी नही थी ! !

भुला दी थी ना मुझे? और देखो, गुणमंजरी तो खुद ही मुझे भुलाने न दे, वैसी है । चूंकि उसने पहले शादी मेरे से रचायी है…. समझे  ?’

‘अच्छा… तो इतना एतबार है गुणमंजरी पर  !’

‘हां, आप नही जानते है । गुणमंजरी सचमुच गुणों की मंजरी है । उसके संस्कार बड़े उच्चकोटि के है । स्त्रीसहज ईर्ष्या या छिछलापन उसमें जरा भी नहीं है । प्रेम के वास्तविक रूप को उसने समझा है। वह उदार है। विशाल ह्रदया है। वह अपने सुख में सुखी और अपने दुःख में दुःखी होनेवाली सन्नारी है। मै तो उसे अच्छी तरह जान चुकी हूं । ऐसी कन्या शायद ही मिले । जितनी गुणी उतनी ही मासूम….! समझदारी और सूझबूझ में शालीन है, तो व्यवहार में बिल्कुल बालसुलभ निर्दोषता से सभर उसका व्यक्तित्व है !’

अमरकुमार का मन आशवस्त हुआ । उसके चेहरे पर प्रसन्न्ता की ज्योति झिलमिला उठी । सुरसुन्दरी ने दूर खड़ी हुई मालती को देखी । मालती ने संकेत में भोजन की सूचना दी । अमरकुमार को लेकर वह भोजनगृह में पहुँची । अमरकुमार को भोजन करवा कर उसने भोजन कर लिया । मालती के सामने मधुर स्मित फेंकती हुई वह अमरकुमार के पास चली गई । मालती आंखे नचाते हुई मन ही मन बोल उठी : ‘जोड़ी तो जैसे इन्द्र-इन्द्राणी की है  !’

आगे अगली पोस्ट मे….

बिदाई की घड़ी आई । – भाग 2
November 3, 2017
बिदाई की घड़ी आई । – भाग 4
November 3, 2017

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