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एक अस्तित्व की अनुभूति – भाग 5

‘तुमने कितनी भयंकर यातनाएं उठाई है…! पिताजी ने सारी बातें की हैं….। मै तो सुनकर चौक ही उठी हूँ….। ओह, नवकार मंत्र की महिमा कितनी अगम-अगोचर है….। तुम्हारे सतीत्व का प्रभाव ही अदभुत है…. सचमुच तुम महासती हो  !’

गुणमंजरी एक ही सांस में सब बोल गई । महाराजा ने गुणमंजरी से कहा  :

‘बेटी, तेरी शादी अमरकुमार के साथ करने का मैंने और सुरसुन्दरी ने सोचा हैं….। तुझे पसन्द हैं ना  ?’

गुणमंजरी मौन रही । वह सोच में डूब गई ।

‘पिताजी, इस सवाल का जवाब मै कल दूँ तो  ?’

‘तेरी जैसी इच्छा बेटी…. तू जैसे खुश रहे…. सुखी हो… वैसे ही मै करूँगा….। मेरे लिए तो तू ही बेटी है…. और तू ही पुत्र है  !’

सुरसुन्दरी। सोच में पड़ गई… ‘उसने जवाब कल देने का क्यो कहा  ?’

‘पिताजी हम दोनों कुछ देर बातें कर लें  ।’

‘हां…. तुम सोच लो ।’ महाराजा और महारानी दोनों वहां से उठाकर दूसरे खंड में चले गये ।

गुणमंजरी सुरसुन्दरी के उत्संग में सर रखकर रो पड़ी….। सुरसुन्दरी उसे सर पर हाथ रखकर उसे सहलाने लगी…। कुछ देर बीती…। सुरसुन्दरी ने गुणमंजरी के चेहरे को अपने हथैलियों में लेते हुए उसकी आँखों मे आँखे डाल कर पूछा  :

‘क्या सोच रही है मंजरी…? पिताजी ने जो कहा…. वह तुझे अच्छा नही लगा क्या ?’

‘तुम महान हों…. बारह बारह साल तक पति के विरह की आग में जल रही हों… अब जब उनका मिलन हुआ है, तब तुम तुम्हारा सुख मुझे देने को तैयार हो गयी हो….। नही…नही….यह नही हो सकता  !  मै इतनी स्वार्थी कैसे होऊंगी? हां मै तुम्हे छोडूँगी तो नही…. ठीक है…. तुम्हारा रूप बदला है ना  ? तुम्हारी आत्मा तो वही है ना ? पत्नी के रूप में नही तो भगिनी के रूप में तुम्हारी सेवा करूंगी….. रोज तुम्हारे दर्शन तो कर लूँगी….।’

‘मंजरी, क्या पगली जैसी बातें कर रही है…. मै तुझे मेरा कौन सा सुख दे रही हूं जो तू इतना सोच रही है ? मै अमरकुमार को बचपन से जानती हूं…। वह अपन  दोनों को समान दृष्टि से देखेंगे । तेरे साथ शादी करने के बाद मेरा त्याग नही करेंगे । और फिर तुझे मालूम है ? तुझे सुखी देखकर मेरा सुख कितना बढ़ जायेगा…! ! अपने दोनों के साथ जियेंगे….। तूने अभी उनको देखा कहां है। ? तू उन्हें देखेगी तो शायद मुझे भी भूल जायेगी….! !’

‘तुम्हे भूलू  ? इस भव में तो क्या… जनम जनम तक तुम्हे नहीं भूल सकूँगी…। तुम तो मेरे मनमंदिर के देव हो ! रूप बदला तो क्या फर्क पड़ता है…? मैने तो प्यार तुम्हारी आत्मा से, तुम्हारे अस्तित्व से प्रेम किया है ना ? मेरा प्रेम शाश्वत रहेगा  ।’

‘तब मेरी बात कबूल है ना ?’

‘तुम कहो और मै ना मानूं ?  मै इनकार करूं तुम्हारी बात का?  ऐसा हो सकता है क्या ?  कभी नही  !  तीन काल में भी ऐसा नही हो सकता है  !’

गुणमंजरी सुरसुन्दरी से लिपट गई… सुरसुन्दरी की आंखे खुशी के आंसुओं से छलछला उठी । गुणमंजरी सुरसुन्दरी के उत्संग में अपने दिल की उमड़ती–उफनती भावनाओ को आंसुओं में बहाने लगी…!  ! गुणमंजरी सुरसुन्दरी में प्रेम– सहनशीलता और जीवंत त्याग की त्रिवेणी महसूसने लगी…। सुरसुन्दरी गुणमंजरी ने अपना रूप पाने लगी ! देह और व्यक्तित्व के उस पार के असीम-अथाह अस्तित्व में दोनों खो गयी …. रम गयी….,डूब गयी….! ! !

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