शादी करने की मना ही कर दूं तो ? तब तो महाराजा स्वयं मेरे जीवन की किताब की
छानबीन करना चाहेंगे कि ‘यह विमलयश शादी करने से इनकार क्यो कर रहा है ? और
गुणमंजरी तो मेरे अलावा अन्य किसी के साथ शादी करेगी ही नही !
विमलयश की स्मृतिसीप में चोर की गुफा में सुने हुए गुणमंजरी के शब्द मोती
बनकर उभरने लगे : चोर को तलवार से जरा भी डरे बगैर उसने साफ साफ शब्दों में
सुना दिया था कि….. ‘मै मेरे मन से विमलयश का वरण कर चुकी हूं….. वही
मेरा प्राणप्रिय है ! !’
वह तहेदिल से मुझे चाहती है । मै यदि शादी करने से इनकार कर दूं तो शायद वह
कोई अनुचित साहस भी कर बैठे ! आत्महत्या कर ले ! कितना गजब ढा जाये ? आखिर
उसका दिल स्त्री का है ना ? स्त्री के नाजुक दिल की संवेदना स्त्री ही समझ
सकती है ! जब मेरे पिताजी ने मेरी शादी अमर के साथ करने का प्रस्ताव अमर के
पिता के समक्ष रखा था…. और अमर के पिताजी ने अमर से बात की थी तब अमर ने
शादी से इनकार कर दिया होता तो क्या होता ? मै तो शायद पागल ही हो जाती !
चंपा की गलियों में ‘अमर… अमर’ करती हुई भटकती रहती ! स्त्री जब किसी को
अपना दिल दे देती है…. तब प्रेम की खातिर वह अपने प्राण की परवाह भी नही
करती है !
‘शादी तो मुझे करनी ही होगी…. परन्तु अमरकुमार के आने के बाद—-भेद खुल
जाने के बाद फिर क्या होगा ?’ विमलयश का मन पशोपेश में उलझ गया । पर तुरन्त
ही उसने उपाय खोज निकाला ‘मै गुणमंजरी की शादी अमर के साथ करवा दूँगी ! ‘
‘पर गुणमंजरी सहमत होगी, अमरकुमार के साथ शादी करने के लिए ?’ दूसरा सवाल
उठा….. यदि वह सहमत नही हुई तो क्या उस समय वह मुझसे नफरत नही करेगी ? मुझे
ताना नही मारेगी ? ‘तुम खुद औरत थी तो फिर मेरे साथ क्यो रचायी ? धोखा क्यो
किया मेरे साथ ?
नही, नही, अमरकुमार का रूप…. उनका व्यक्तित्व …. देखकर गुणमंजरी उनके साथ
शादी करने को जरूर सहमत हो जाएगी ।
‘पर अमरकुमार खुद सहमत नही हुए तो ?’ विमलयश के दिमाग के दरिये में एक के बाद
एक सवालो की तरंगें उठने लगी ।
‘मै उन्हें पहले ही से सहमत कर लुंगी । मै उन्हें पहले ही से इतने प्रभावित
बना डालूंगी की वे बात को टाल ही नही पाये । मेरी कही बात का इनकार न कर सके
! ‘हाँ, उन्हें प्रभावित करने के लिए मुझे कोई नाटक तो करना ही होगा ! …..
आगे अगली पोस्ट मे…