गुणमंजरी अचानक विमलयश को सामने उपस्थित हुआ देखकर हर्षविभोर हो उठी ।
उसके मुरजाये अधर पर भी मधुर स्मित की कलिया खिल उठी ! उसने विमलयश को नमस्कार
किया । उसके चरणों मे गिरती हुई बोल उठी :
‘त्वमेव शरणम मम !’
विमलयश की रोबीली आवाज गुफा में गूंज उठी :
‘रे तस्कर ! तू विद्यावान है… बुद्धिशाली है, इसलिए मै तुझे मार नही रहा
हुँ। पर तुझे मिली हुई विद्याशक्ति का तू कितना दुरुपयोग कर रहा है ? जो
विद्या दुसरो की रक्षा कर सकती है… उसी के जरिये तू ओरो को पीड़ा पहुँचा रहा
है ।’
विमलयश के एक ही मुष्टिपरहार से औऱ लात से चीखता चिल्लाता चोर जमीन पर पड़ा पड़ा
कराह रहा था । उसका मन टूट चुका था । अपनी ताकत का गुरुर मीम की तरह पिफल चुका
था । विमलयश की अजेय
ताकत के सामने उसने अपनी हार स्वीकार ली ! उसने विमलयश के चरणों मे आत्मसमपर्ण
कर दिया । ‘अपन अब जरा भी देरी किये बगैर नगर पहुचेंगे । चुकी सवेरा हो चुका
है, महाराजा जब मुझे मेरे महल में नही पाएंगे तो अपहरण या हत्या का अनुमान
बांध लेंगे । और शायद कोई अनर्थ भी हो जाये ! कुछ भी अनहोनी हो, इससे पूर्व ही
अपन पहुँच जाये तो अच्छा !’
विमलयश ने राजकुमारी और तस्कर से कहा । फिर दोनों को अपने साथ लेकर गुफा में
से बाहर निकलकर विमलयश ने बड़ी तेजी से नगर की ओर कदम उठाये।
इधर महाराजा और महारानी सारी रात जगते रहे थे। विमलयश की चिंता से वे
दोनों व्याकुल थे । ज्यो उषा काल हुआ त्यों तुरन्त महाराजा गुणपाल स्वयं
विमलयश के महल पर आये ।
महल के दरवाजे खुले और बिना किसी रक्षक के देख कर राजा के दिल मे सन्नाटा
छा गया ! महल में प्रवेश करते ही राजा ने आवाज दी : विमलयश….. विमलयश’ पर
कोई जवाब नही मिला । महल का एक एक खंड राजा ने देख लिया, पर कही भी विमलयश का
अता-पता नही था । तिजोरियां खाली पड़ी हुई थी। धनमाल चोरी हो गया था और विमलयश
गुम हो चुका था।
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