विमलयश तस्कर पर बराबर निगाह जमाये एक कौने में खड़ा है ।
तस्कर न तो विमलयश को देख रहा है … नही कुछ ज्यादा सोच भी रहा है ।
वह सोचता है : शायद परदेशी कुमार मेरे से डरकर महल को छोड़कर बेचारा कहीं भग
गया लगता है …। खैर, यदि मिला होता तो यमलोक में भिजवा देता… पर अब तो
उसकी सम्पति हथिया लूँ….।’ उसने मूल्यवान रत्न-जवाहरात वगैरह की गठरी बांधी
और महल से बाहर निकला ।
विमलयश भी अपनी कमर पर तीक्षण हथियार छुपाकर तैयार ही खड़ा था। उसने पीछा
पकड़ा तस्कर का। तस्कर आगे और विमलयश पीछे। नगर के किले के निकट आकर तस्कर ने
इधर उधर झांककर गुप्त मार्ग से प्रवेश किया। विमलयश भी चुपके से उसी के पीछे
सरक गया। दोनों किल्ले के बाहर निकल आये।
रात का तीसरा प्रारह प्रारम्भ हो चूका था। चोर वेग से आगे बढ़ रहा था…
विमलयश भी उतनी ही तीव्रता से उसके कदमो से कदम मिला रहा था । चोर सशंक नजरों
से बराबर पीछे देख रहा था … पर विमलयश अद्दश्य होने से उसे देखने का कुछ
संभव नहीं था ।
एक बहुत बड़े वटवुक्ष के नीचे दोनों पहुँचे । वुक्ष के नीचे एक बड़ी पत्थर
की चट्टान पड़ी हुई थी । चोर ने पत्थर की उस चट्टान को छुआ और कुछ ही पलों में
वह चट्टान खिसकने लगी … चोर तुरन्त ही अंदर के तलधर में उतर गया । चट्टान से
वापस रास्ता बन्द कर दिया। विमलयश ने कुछ पल बीतने दिये… फिर एक ही लात
मारकर चट्टान को दूर किया और खुद भूमिगुह में उतर पड़ा ।
आगे अगली पोस्ट मे…