रात का तीसरा प्रहर ढलने लगा था….. । शाम के जले दिये धीरे-धीरे मद्धिम हुए
जा रहे थे …. विणा के सुर
भी सिमटते सिमटते शांत हो गए । सुरो की अनुगूँज अब भी आस पास को आंदोलित बना
रही थी ।
विमलयश ने वीणा को यथास्थान रख दिया और जमीन पर लेट गया । अक्सर वह इतनी रात
गये हो सोता था…। कुछ कसक सी उठ रही थी भीतर में ! मन ही मन विचारो की आंधी
छाने लगी ।
‘बेचारी…. भोली राजकुमारी ! वह कहा यह भेद जानती है कि मै भी उसके जैसी
राजकुमारी हुँ…? मेरे पुरुष रूप के साथ वह प्यार का रिश्ता बांध बैठी है ?
स्त्री का दिल इसी तरह खिंच जाता है… परदेसी के साथ प्रीत के गीत रचा बैठती
है…. मै क्या करूँ ? ‘ मैं अभी मेरा भेद खोलू भी तो कैसे ? मुझे तो
‘विमलयश ‘के रूप में ही यहा रहना होगा । अमरकुमार आने के बाद ठीक है मेरा भेद
खुल जाए तो भी चिन्ता नही….। तब तक तो राज को राज ही रखना पड़ेगा ! राजकुमारी
को खिंचने दु’ प्रेम के प्रवाह में ? बहने दु प्रीत की पागल नदी में….!
हा…. मै उसे अपने देह से दूर रखूंगी ।’
विमलयश के साथ जैसे कलाएं थी वैसी उसकी बुद्धि भी विलक्षण एवं विचक्षण थी ।
ज्ञान रुचि तो उसके साथ जन्म से जुड़ी हुई थी । दया करुणा एवं परोपकारपरायणता
उसे दूध के सैह मिले हुए गुण थे ।
उसके पास चुंगी का धन काफी मात्रा में इकट्ठा होने लगा…. उसने बेनातट के
गरीब, दिन दुखी और असहाय लोगो की सार संभाल लेना प्राम्भ किया । उदारत से सबको
सहाय करने लगा । इस कार्य मे उसे मालती की काफी मदद मिल जाती थी …. चूंकि वह
पूरे नगर से परिचित थी। तीन बरस में तो पूरे बेनातट नगर में कोई भी व्यक्ति
गरीब नही रहा….। विमलयश ने जी भर के लोगो को दिया ।
दूसरी तरफ विमलयश ने पाया कि राज्य के अधिकारी वर्ग को पूरी तनख्वाह नही मिलती
थी।
आगे अगली पोस्ट मे…