विमलयश की हर एक अदा पर राजकुमारी गुणमंजरी
जूम उठी उसकी हर छटा पर वह नाच उठी। उसका मनपंखी तो कभी का विचारो के तिनके
चुनचुन कर ख्यालो का सुंदर सलोना महल रचाने लग गया था ।
मालती विणा ले आयी ।
विमलयश ने विणा को उत्संग में रखी ।
और ….स्वरांकन की मधुरता को अद्भुत लय में ढालने लगा। अकथ्य मस्ती में
सुरगंगा बहने लगी। देखते ही देखते समूचा वातावरण नमी से भर गया …..। हृदय की
अतल गहराई में से उठती कोई संवेदना ….. स्वरकिन्नरी का रूप लेकर आ पहुंची
थी। सभी की आंखों में करुणा के नीर बिंदु बन कर उभरने लगे थे।
राजकुमारी गुणमंजरी की ह्रदयनोका, को विमालयश की लगन ,दर्द कर गहरे दरिये
में खींच ले गई थी ।
फिर तो यह रोज़ का कार्यक्रम हो गया। राजा भी भरकर विमालयश का वीणावादन सुनता
है …..। कभी कभार राज्यसभा में भी विमालयश की विणा के सुर अकृत हो उठते है।
लोग व सभाजन वाह-वाह पुकारते थकते नही है …..। राजा के साथ विमालयश कि
दोस्ती जम गई। गुणमंजरी विमालयश के वीणावादन पर मोहित हो गई थी…..। उसकी
अनुभवी आंखों ने गुणमंजरी के दिल मे हिलोरे लेती भावनाओ को भांप लिया था।
एक रात की बात है ।
विमालयश की विणा मे से ‘शिवरंजनी’ के दर्दीले सुर बहने लगे …..।
अस्तित्व को बिसरा दे वैसे मोहक सुरो मस सब कुछ डूब गया ….। सर्द बना हुवा
दर्द स्वर के अनुताप में पिघलने लगा।
राजकुमारी जग रही थी ।
विणा के सुरो ने उसको बेचैन बना दिया ….।अपने शयनखंड के छोटे से नक्काशी भरे
झरोखे की बारी खोलकर वह देर तक सुनती ही रही उन स्वरों को, जो हवा के पंखों पर
सवार हुवे उसकी तरफ चले आ रहे थे ।
उसका बेचैन मन-पंखी पंख फिलाये उड़कर कभी विमलयश के महल में जा पहुंचा था !आकाश
में चांदनी पुरबहार में खिली थी । धरती नर रुपहली चादर ओढ़ ली थी ।
आगे अगली पोस्ट मे…