भोजन तैयार हो गया था। मालती ने विमलशय को प्रेम स आग्रह करके भोजन करवाया।
भोजन के पश्चात विमलशय यही पर बैठा। मालती ने भी भोजन कर लिया। विमलशय ने
मालती से कहा : मालती, महाराजा बहुत उदार है,
नही ? है तो सही, पर तुम्हारी तुलना नही हो सकती। तू तो बस जब देखो तब मेरे ही
गुणा गाने लगेगी। जा, तेरे से बात ही नही करनी है मुझे तो। यो कहकर विमलशय
खड़ा होकर अपने कमरे में चला आया।पीछे पीछे ही मुँह में आँचल दबाकर हँसती हुई
मालती आयी और बोली: मै महल पर जा जाऊ क्या ?
क्यों ?
वहाँ पर सारी सुविधा जमा दु, सामान भी लगा दु। अच्छा और यह भी देखती आना कि
अपने महल और राजमहल के बीच कितनी दूरी है।
मालती चली गयी राजमहल की ओर,
और इधर विमलशय शुद्ध वस्त्र पहनकर श्री नवकार मंत्र का ध्यान करने के लिये बेठ
गया।
जाप-ध्यान पूर्ण करके विमलयश बगीचे में पलाश व्रक्ष के नीचे छाया में जाकर
बैठा। प्रेमी का प्रेम जब प्रेम के बल पर अपनी सिद्धि प्राप्त करने के लिए
तत्पर बनता है- तब कृतनिश्चयी योद्धा का रूप धारण करता है। विमलयश की निगाह
आकाश में घूमने लगी।आकाश में सहस्त्र- रश्मि दमक रहा था- पर यकायक एक काली
बदली आयी और सूरज को आवरित कर दिया। विमलशय को इस बदली का आकार रत्नजटी के
विमान सा लगा। उसके होठो पर से शब्द सरक गये: भाई ! तुम्हारा विमान नीचे उतारो
! मालती का पति पास में ही पौधे को पानी सींच रहा था। विमलशय की आवाज सुनकर वह
दौड़ आया क्या हुआ कुमार ? कुछ चाहिए क्या तुम्हें ? विमलशय हँस दिया नही नही
कुछ नही हुआ कुछ चाहिए भी नही। माली चला गया। विमलशय सुरसँगीत नगर की स्मृति
यात्रा में खो गया। एक के बाद एक दृश्य स्मृतिपट पर उभरने लगे भाई भाभियां
गुजारे हुए दिन बीते हुए पल और भी बहुत कुछ